जब 15 अगस्त को हिटलर हुआ था शर्मसार
राजेंद्र सजवान
बेशक, 15 अगस्त भारत की आज़ादी का दिन है, जिसे भारतवासी स्वतंत्रता दिवस के रूप में याद करते हैं और धूम धाम से मनाते हैं। लेकिन भारतीय हॉकी के नज़रिये से भी इस दिन का खास महत्व है। हॉकी प्रेमी जानते ही हैं कि आज़दी पूर्व ही भारतीय हॉकी ने लगातार तीन ओलंपिक स्वर्ण पदक जीत कर बेताज़ बादशाह का खिताब जीत लिया था। 1928 में एम्सटरडम, 1932 में लास एंजेल्स और 1936 में बर्लिन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीत कर भारत को दुनिया भर के देशों में जाना पहचाना गया।
बर्लिन ओलंपिक कई कारणों से महत्वपूर्ण रहा। एक तो भारतीय टीम की कप्तानी ध्यानचन्द कर रहे थे, दूसरे, उन्होने लगातार तीसरा ओलंपिक खिताब जीत कर ख़िताबी तिकड़ी बनाई। तीसरे, कप्तान ध्यानचन्द की जादूगरी के सामने हिटलर जैसे तानाशाह को शर्मसार होना पड़ा। भारत ने मेजबान जर्मनी को उसी के घर पर 8-1 से पीट कर खिताब जीता। एक और उल्लेखनीय बात यह रही कि भारत और जर्मनी का फाइनल मुकाबला 15 अगस्त को खेला गया था।
बर्लिन ओलंपिक में भारत ने क्रमश: हंगरी, अमेरिका, जापान और फ्रांस को परास्त कर फाइनल में प्रवेश किया, जहाँ उसका मुकाबला 14 अगस्त को मेजबान जर्मनी से होना तय था। लेकिन 13 और 14 अगस्त की तेज बारिश के चलते खेल संभव नहीं हो पाया और 15 अगस्त को खेले गये ख़िताबी मुक़ाबले में जब भारत और जर्मन टीमें आमने सामने हुई तो ध्यानचन्द की अगुवाई में भारत ने हिटलर के सामने उसकी टीम का बुरी तरह मान मर्दन कर दिया। जो भारतीय टीम अभ्यास मैच में 1-4 से हार गई थी उसने अपनी असली ताक़त दिखाते हुए 8-1 की जीत दर्ज़ की और ओलंपिक खिताबों की तिकड़ी बनाई। ध्यानचन्द तीनों ओलंपिक में विजेता खिलाड़ी बन कर उभरे। उन्होंने हर मैच में गोलों की झड़ी लगाई।
29 अगस्त 1905 को प्रयाग राज में जन्में ध्यानचन्द विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, जिस कारण से उन्हें हॉकी जादूगर कहा गया। खुद हिटलर भी उनके खेल के इस कदर मुरीद हुए कि उन्हें अपनी फ़ौज़ में भर्ती होने का निमंत्रण दिया, जिसे उन्होने ठुकरा दिया। हालाँकि उन्हें भारत रत्न देने की लगातार माँग की जाती रही है, जिसे देश की सरकारों ने अब तक मंजूर नहीं किया और आगे भी कोई उम्मीद नज़र नहीं आती। 1979 में उनका देहांत हुआ। एक हज़ार से अधिक गोल दागने वाले मेजर को पद्म भूषण सम्मान मिला लेकिन भारत रत्न की मांग को बार बार अनसुना कर दिया गया।
दद्दा के सुपुत्र अशोक कुमार भी अपने पिता की तरह प्रतिभा के धनी थे। 1975 की विश्व विजेता भारतीय टीम की जीत में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। लेकिन देश के तमाम हॉकी प्रेमियों और खिलाड़ियों की तरह अशोक भी इसलिए मायूस हैं क्योंकि देश और दुनियां के महानायक मेजर ध्यान चन्द को भारत रत्न नहीं मिल पाया।एक साक्षात्कार में उन्होने नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहा कि पूरी दुनिया उनके पिता को पूजती है लेकिन पता नहीं क्यों अपने ही देश में उनको वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके निश्चित हकदार बनते हैं।
हिटलर की मौजूदगी में 15 अगस्त, 1936 को सुबह 11 बजे जर्मनी को 8-1 से पराजित करने वाली भारतीय टीम के खिलाड़ी थे- ध्यानचन्द(कप्तान), ज़फ़र, एलेन, दारा, टेपसेल, मो. हुसैन, कुलेन, फ़िलिप, मसूद, अहसान ख़ान, पीटर, गुरचरण, रूप सिंह(ध्यानचन्द के भाई), शेर ख़ान, गैलीबर्डी, शहबुद्दीन, निर्मल, एमेट, माइकल, जगन्नाथ और पी गुप्ता(मैनेजर)।
(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. आप इनके लिखे लेख www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)