मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कब तक उपेक्षित रखेंगे मिथिला को?
सुभाष चन्द्र
आप बिहार के मिथिला परिक्षेत्र में आइए। किसी से भी पूछिए कि वहां की पहचान क्या है ? लोकसंस्कृति और परंपरा में किन वस्तुओं की प्रधानता है, तो उसमें मखाना का जिक्र आएगा ही। इसे तय मानिए। मिथिला का मखाना उसकी एक भौगोलिक पहचान का संकेत है। अब इसे बदल कर बिहार का मखाना जी आई टैग करने संबंधी सबौर कृषी विस्वविद्यालय की पहल क्या हुई, पूरा मिथिलांचल आंदोलित हो गया है। राजनीतिक दलों के नेता अपने दलों की लकीर को लांघकर मिथिला के लिए उठ खडे हुए हैं। कई युवा संगठन और स्वयंसेवी संस्थाएं आंदोलन का रास्ता पकड चुकी है। सभी को लगता है कि यह निर्णय सम्पूर्ण मिथिलांचल की पहचान पर प्रहार करने जैसा है। हां, कुछेक चाटुकार नेता-मंत्री अपनी कुर्सी के लोभ में चुप्पी साधे हुए हैं। इतना तय मानिए कि इन नेताओं का न तो कोई दीन है और न ही ईमान। इनका केवल एक ही लक्ष्य है कुर्सी। किसी भी कीमत पर कुर्सी।
मिथिला की जनता बिहार के उस मुख्यमंत्री से सवाल कर रही है, जिन्हें मिथिला की सुध केवल चुनावी समय में ही आती है। मिथिला की जनता कहती है कि इसका कोई तुक नहीं है की बिहार मखाना नाम से जीआई टैग लिया जाए। मिथिला मखाना नाम से जीआई टैग मिलने पर भी यह बिहार राज्य के लिए ही फायदेमंद होगा। “मगही पान” के नाम पर जीआई टैग लिया जा सकता है, उस वक्त कोई नहीं कहता कि “बिहारी पान” के नाम पर टैग लिया जाए। लेकिन मखाना को आप बिहार मखाना के तौर पर प्रेजेंट करना चाहते हैं। मिथिला शब्द से इतनी समस्या क्यों है ? मिथिला के पहचान से जुड़े हरेक चीज में से आप मिथिला शब्द क्यों निकाल देना चाहते हैं ? आप मिथिला के हिस्से का हक खाना चाहते हैं।
बता दें कि मखाना का उत्पादन 75 प्रतिशत से अधिक मिथिला क्षेत्र में होता है। मखाना मिथिला का पहचान माना जाता है, यहां का मूल फसल है। यदि इसका जीआई टैग “मिथिला मखान” नाम से लिया जाता है तो इस पर मिथिला क्षेत्र का अधिकार होगा। इसे उपजाने व प्रोसेस करने की विधि वह मानी जाएगी जो मिथिला क्षेत्र में उपयुक्त होती है। इससे मिथिला के किसानों, व्यापारियों को फायदा होगा और भविष्य में क्लस्टर बेस्ट एग्रीकल्चर सहित केंद्रीय योजनाओं का लाभ मिथिला को मिलता।
पग पग पोखर, माछ मखान है, मिथिला की पहचान। तीनों ही पहचान अपनी चमक खो रही है। पोखर की कमी, पान की खेती में भी कमी के साथ ही उचित प्रोत्साहन के अभाव में मखाने की खेती से जो किसानों में समृद्धि होनी चाहिए। वह नहीं हो रही है। कभी सुखाड़ और कभी बाढ़ के कारण किसान बदहाल हैं। सहरसा जिले में करीब चार हजार किसान मखाने की खेती से जुड़े हुए हैं। लेकिन सरकारी उदासीनता और बाढ़ के प्रभाव से खेती ठीक से नहीं हो पा रही है। बाजार व पूंजी के अभाव में किसानों को कभी उचित दाम नहीं मिल पाता है। जिसके कारण छोटे व्यापारी बड़े शहरों में बैठे व्यापारियों के हाथ आर्थिक शोषण का शिकार होते हैं। शहरों में जहां मखाना 4 से 5 सौ रुपए किलो तक बिकता है।लेकिन यहां किसान सौ, दो सौ रूपये रूपये प्रतिकिलो बेचने को विवश हैं।
बिहार के सहरसा, सुपौल सहित दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, पूर्णिया, कटिहार आदि जिलों में मखाना का सर्वाधिक उत्पादन होता है।देश के कुल उत्पादन का 90 फीसदी बिहार में होता है।जिसका मुख्य कारण है स्थिर पानी वाले जलाशयों का होना। मखाने की खेती ठहरे हुए पानी में होती है। डेढ़ से दो फीट गहराई वाले पोखर मखाने की खेती के लिए उपयुक्त होते हैं। देश भर में करीब 15 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाने की खेती होती है। जिसमें 80 फीसदी पैदावार बिहार में होती है।
अब देश ही नहीं, विदेशों में भी यह माना गया है कि मखाना बेहद पौष्टिक होता है। इसमें प्रोटीन प्रचुर मात्र में होता है। सोडियम और वसा की मात्र काफी कम होती है। बिना खाद व कीटनाशकों के इसकी खेती की जाती है। इसी के साथ, किडनी, रक्तचाप, हृदय रोग में यह काफी फायदेमंद होता है। इसे लोग देवभोजन भी कहते हैं। इन्हीं गुणों के कारण विदेशों में इसकी काफी डिमांड है। वजन घटाने के इच्छुक लोग भी इसका सेवन करते हैं। बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 10 जिलों में प्रमुख रूप से मखाने की खेती होती है। देश में बिहार के अलावा असम, पश्चिम बंगाल और मणिपुर में भी मखाने का उत्पादन होता है, मगर देश भर में मखाने के कुल उत्पादन में बिहार की हिस्सेदारी 80 फीसदी है। बताया जाता है कि कुछ समय पहले तक मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष 22 से 25 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
आंकडों के आधार पर बात करें तो बिहार के करीब 13 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। इसमें 90 हजार टन बीज का उत्पादन होता है। इतने बीज से किसान लगभग 35 हजार टन लावा तैयार करते हैं। कुछ साल पहले बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई।
अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा सकता है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगता है। आमतौर पर तालाब में मखाने की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है। हाल के दिनों में वैज्ञानिकों ने एक नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में होगी और फसल अगस्त में तैयार हो जाएगी।
कांग्रेस के विधान परिषद सदस्य प्रेमचंद्र मिश्रा ने मिथिला के मखाना का भौगोलिक संकेत जी आई टैग बदलने को अनुचित बताया और कहा कि यह निर्णय मिथिला की पहचान को समाप्त करने की साजिश की पहली कड़ी है। बिहार का मखाना जी आई टैग करने संबंधी सबौर कृषी विस्वविद्यालय की पहल, कतई स्वीकार्य योग्य नहीं है। यह निर्णय सम्पूर्ण मिथिलांचल की पहचान पर प्रहार करने जैसा है।
क्या हाजीपुर का केला बिहार का केला कहलायेगा, क्या भागलपुरी शिल्क को बिहार का शिल्क बताया जाएगा। इसी तरह क्या मुजफ्फरपुर की लीची को बिहार की लीची, सिलाव के खाजा को बिहार का खाजा कहा जाएगा। सरकार बताए कि धान का कटोरा शाहाबाद को क्या बिहार का जीआई टैग दिया जा सकता है ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)