वैचारिक आन्दोलन के प्रणेता थे दीनदयाल जी
कृष्णमोहन झा
भारतीय जनता पार्टी आज केंद्र और अनेक राज्यों में सत्ता की बागडोर थामे हुए है। लगभग सारे देश में वह अपनी जड़ें जमा चुकी है। उसे विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल होने का गौरव मिल चुका है । इस विराट राजनीतिक दल ने १९५१में जब भारतीय जनसंघ के नाम से एक छोटी सी पार्टी के रूप में देश की राजनीति में अपना सफर प्रारंभ किया तब डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जोड़ी का दृढ़ संकल्प और अदम्य इच्छा शक्ति ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो अभिन्न जोडीदार पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंदर छिपी प्रतिभा से अभिभूत हो गये थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से वे इतने प्रभावित थे कि एक बार उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर देश के पास दो दीनदयाल उपाध्याय होते तो देश का नक्शा ही अलग होता। दीनदयाल उपाध्याय की अद्भुत नेतृत्व क्षमता और सांगठनिक कौशल के बल पर वे आगे चलकर पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंचे परंतु दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में हुए उनके निधन के कारण पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनके नेतृत्व का लाभ अत्यल्प अवधि के लिए ही मिल सका।
आज पार्टी जब अपने पूर्व अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का जन्म दिवस समारोह पूर्वक मना रही है तब उनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद के सिद्धांत की चर्चा भी स्वाभाविक है। लगभग साढ़े पांच दशक पूर्व जब उन्होंने एकात्म मानववाद की अवधारणा को तत्कालीन जनसंघ के अधिवेशन में प्रस्तुत किया तब सारे देश में वह चर्चा का विषय बन गया था। दीनदयाल उपाध्याय को अगर दीर्घायु मिली होती तो वे एकात्म मानववाद की अपनी परिकल्पना को और विस्तार से देश के समक्ष प्रस्तुत करते लेकिन इतने वर्षों बाद अब उनके एकात्म मानववाद की उपादेयता और प्रासंगिकता की अनुभूति अब शायद पहले भी अधिक हो रही है। एकात्म मानववाद के माध्यम से दीनदयाल उपाध्याय ने दर असल वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा को नये रूप में प्रस्तुत किया था।स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में एकात्म मानववाद की अवधारणा तात्कालीन भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में प्रस्तुत की थी।
उनकी इस अवधारणा को भारतीय जनसंघ के अगले अधिवेशन में स्वीकार कर लिया गया, तब देश में ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी यह एकात्म मानववाद चर्चा का विषय बन गया। उस समय प्रचलित पूंजीवाद और साम्यवाद की विफलताओं ने स्वाभाविक रूप से एकात्म मानववाद के प्रति उत्सुकता जागृत कर दी थी।
दीनदयाल जी को जब 1967 के अंत में कालीकट में आयोजित भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था, तब एकात्म मानववाद की स्वीकार्यता तथा उसके प्रचार- प्रसार को व्यापक स्तर पर किए जाने के लिए आवश्यक वातावरण के निर्माण की संभावनाएं भी बलवती प्रतीत होने लगी। दुर्भाग्य से तीन माह बाद ही दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु ने उस विराट व्यक्तित्व की जीवन यात्रा पर समय पूर्व ही विराम लगा दिया।पूंजीवाद और साम्यवादी जैसी विचारधाराएं इतिहास की विषय वस्तु बनकर रह गई है, परंतु पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद अपनी विलक्षण विशेषताओं के कारण हमेशा जीवंत बना रहेगा। गौरतलब है कि जिस समय दीनदयाल उपाध्याय अपना एकात्म मानववाद लेकर आए थे, वह समय विश्व की महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध का दौर था और पूंजीवाद और साम्यवाद आंदोलन दम तोड़ने में लगे थे।
इसलिए दीनदयाल उपाध्याय ने एक ऐसी अवधारणा विकसित किए जाने की आवश्यकता महसूस की जिसमें स्पर्धा नहीं एकात्मकता को प्रमुखता दी गई हो। इसमें परस्पर विरोध के लिए कोई जगह ना हो ,बल्कि उसके स्थान पर सामंजस्य को तरजीह दी गई है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय उस अवधारणा के प्रणेता बने, जिसमें मानव जाति के शांति, सहयोग और विकास की सम्भावनाओ को प्रबल बनाने का सामर्थ्य हो।
स्व. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन में जाति, धर्म, समुदाय, रंग के आधार पर विभेद की कोई जगह नहीं है। इसमें जब सभी के बीच में एकात्मता के भाव को प्रमुखता दी गई हो तो भेदभाव का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। एक की पीड़ा सबकी पीड़ा और एक की प्रगति सबकी प्रगति तभी बन सकती है, जब व्यक्ति की समाज के साथ, समाज की राष्ट्र के साथ और राष्ट्र की संपूर्ण विश्व के साथ एकात्मता सुनिश्चित करने वाला यह एकात्म मानव दर्शन किसी को विशेष महत्व देने और किसी की उपेक्षा कर देने की अनुमति नहीं देता। एक के लिए सब और सबके लिए एक इसका मूल तत्व है। दोनो परस्पर जुड़े हुए ही नहीं है ,बल्कि दोनों एक है, क्योंकि उन्हे एकात्मकता के दर्शन ने जोड दिया है। पं दीनदयाल उपाध्याय का सानिध्य इस देश को लंबे समय तक प्राप्त होता तो वे एकात्म मानव दर्शन का और वृहद रूप् लेकर सामने आते, लेकिन एकात्म मानव दर्शन उसी रूप् में इतना समृद्ध है कि वह हमारे लिए शांति, सहयोग और प्रगति के सारे द्वार खोल देता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हम इस अनूठी परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने की दिशा में निरंतर आगे बढ़ते रहें।
आज जब लगभग सारा देश कोरोना वायरस के संक्रमण की चपेट में है और इसकी भयावहता भी निरंतर बढ़ती जा रही है, तब पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगितकता और उपादेयता भी सवाल उठना स्वाभाविक है। चूँकि इस दर्शन में मानव से लेकर विश्व तक की एकात्मता की बात कही गई है। इसलिए एकात्म मानव दर्शन कोरोना संकट से निपटने के प्रयासों में भी एकात्मता की अपरिहार्यता सिद्ध करता है। कोरोना संकट पर विजय पाने के लिए दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग प्रयास किए जा रहे है, परंतु सबका अंतिम लक्ष्य एक ही है, कोरोना पर विजय पाना। एक देश द्वारा किए जाने वाले शोध अगर सफल होते है तो उनकी उपयोगिता संपूर्ण विश्व के लिए निर्विवाद मानी जाएगी। यह संकट किसी एक देश की भौगोलिक सीमाओं तक ही सीमित नहीं है, उसी प्रकार एकात्म मानववाद को भी भोगोलिक दायरे में नही बांधा जा सकता। एक देश में विकसित वैक्सीन का लाभ संपूर्ण विश्व तक पहुंचना चाहिए क्योंकि सारी मानव जाति में एकात्मकता है, उसमें रंगभेद जाति, वर्ण अथवा देश आधार पर कोई भेदभाव करने की अनुमति एकात्म मानव दर्शन नहीं देता। उदाहरण के लिए प्लाज्मा थैरेपी की उपयोगिता पर विचार करे तो इसकी शुरूआत एक कोरोना संक्रमित मरीज से होती है, फिर उसके बाद कई संक्रमितों तक इसका लाभ पहुंचता है, क्योंकि व्यक्ति से परिवार और परिवार से एकात्म समाज बनता है। एकात्मकता का यह भाव ही संवेदना को जन्म देता है।
स्वर्गीय दीनदयाल उपाध्याय ने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया था । वे गहन चिंतक और विचारक थे। अपने विचारों से वे केवल एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन नहीं देते थे बल्कि गहन ,अध्ययन और मनन से उपजे उनके विचारों में समूची मानव जाति के कल्याण का संदेश छिपा होता था। दीनदयाल जी दरअसल एक वैचारिक आन्दोलन के प्रणेता थे और उनके आंदोलन को एक राजनीतिक दल के दायरे में सीमित नही किया जा सकता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. )