आइए, समय रहते संभल जाएं, वरना गिद्धों की नजर है…
निशिकांत ठाकुर
बात उस समय की है, जब भारत पूर्णतः अंग्रेजों के अधीन आ चुका था, लेकिन मराठा का उत्तर भारत में रहना तथा मुगलों और हिन्दू राजा महाराजाओं को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए उसके अधिकारी योजना दर योजना बना रहे थे। इसी योजना के तहत लार्ड जनरल लेक और मेजर जनरल फ्रेजर के बीच जो योजना बन रही थी, उसी क्रम में लार्ड जनरल लेक ने मेजर जनरल फ्रेजर से कहा था कि भारत को हमने हराया नहीं है, बल्कि स्वयं भारत ने अपने को हराया है। लार्ड जनरल लेक ने धीरे से कहा ध्यान से सुने यह बात बड़ी गंभीर है। भारत के पराजित होने का कारण यह है कि भारत केवल एक भौगोलिक नाम है वह राजनीतिक ज्ञानपूर्ण कोई राष्ट्र नहीं है। बातचीत के क्रम को आगे बढ़ाते हुए लार्ड जनरल लेक ने जनरल फ्रेजर से कहा कि नेपोलियन को यूरोप में कोई आर्थिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि वह जिन्हें हराता है वह उन्हीं के माथे पर उनके हराने का सारा खर्च डालता है। इसी प्रकार से हम भारत के साथ कर रहे हैं। अपनी विजय का सारा खर्च भी हम भारत से ही वसूलते रहे हैं और इसमें थोड़ी सख्ती करनी पड़ती है, परंतु यह हमारी लाचारी है, क्योंकि इसके बिना तो काम नहीं चल सकता है।
अंग्रेजों द्वारा भारत की भूमि पर अधिकार कर लेना वास्तव में मुगलों के बाद की एक राज्य क्रांति है। दोनों के मध्य गोपनीय विचार विमर्श जारी रहा कि पूर्णतः अपना शासन कैसे कायम रखा जाय ? इसी तरह छोटी छोटी बैठक करके विशाल भारत पर कब्जा करने का क्रम चलता रहा और फिर उसके बाद कितने वर्षों तक उसने भारत को गुलाम बनाकर रखा, कितना निचोड़ा इसे बताने की जरूरत नहीं।
आज नमन करता हूं उन राष्ट्रभक्त को जिनकी अनमोल सोच समर्पण और योजना ने अथक परिश्रम के बाद अंग्रेजो की गुलामी से भारत को मुक्त कराया और आज हम आजादी की सांस लेते हैं। जिनकी शहादत के ऋण से देश कभी मुक्त नहीं हो सकता। उनका अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं था, बस उनमें एक जज्बा था, एक उत्साह था कि हमारा भारत जो खंड-खंड में बिखरा है, उसे एक करके हमारे बाद का भारत स्वतंत्र भारत कहलाएगा। उन दिव्यताओं को बार -बार नमन। कोटिशः श्रद्धांजलि।
भारत में आंतरिक षड्यंत्र रचने की जो कोशिश उस समय की जा रही थी, दरअसल वह विदेशी चालाक आक्रांता थे जो योजनाबद्ध तरीके से पहले व्यापार करने आए फिर सैकड़ों वर्षों तक हमारे ऊपर शासन करते रहे। स्वयं विदेशी होते हुए हमे ही हमारे घर से बंचित कर दिया था, हमारे अधिकारों से वंचित कर दिया था , हमारे ऊपर अनाप शनाप कानून लादते थे। अजीब दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में हमें कालापानी की सजा देते थे और हम निरीह होकर उनके सामने सिर झुकते थे। उनके द्वारा दी गई सजा को स्वीकार करते थे। मजबूरी थी हमारी। वे संगठित थे, उनका अपना कानून था वह पढ़े लिखे थे , उनके पास अस्त्र शस्त्र थे। हमारे पास कोई संगठन नहीं था और ना ही हमारी अगुवाई करनेवाला नेता । जिस दिन से हमने यह समझा कि हमारे ऊपर अन्याय किया जा रहा है उसी दिन से अंग्रेजों कि सूई उल्टी घूमने लगी। एक लाठी और एक धोती पहनकर शुद्ध देसी भारतीय मोहनदास कर्मचंद गांधी ने उसी डंडे से सूटेड बुटेड अंग्रेजो को भारत से भागने को मजबूर कर दिया। वह अकेला नहीं थे। उनके पीछे सारा देश खड़ा था। उन्होंने जनहित के लिए पहले अपने को नेता सिद्ध किया जेल गए अंग्रेजों के डंडे खाए।
सच तो यह है कि उनके साथ जो भी करीब से जुड़े लोग थे, उनका आपस में कोई तकरार नहीं था। इसलिए सब अपने को नहीं, गांधी जी को ही नेता मानते थे। केवल सुभाष चन्द्र बोस ही ऐसे थे, जो सीधा अंग्रेजों का विरोध करते थे और कहते थे – मुझ अड़तीस करोड़ भारतीय पर सबा लाख अंग्रेज शासान करे, यह नहीं हो सकता। असल में, वह गरमदल के अद्भुत नेता थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए भारत की सबसे प्रतिष्ठित नौकरी को ठुकरा दिया और अंग्रेजो को देश से खदेड़ने के लिए प्राण पन से जुट गए। लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली , फिर भी उनके प्रण में कोई कमी नहीं थी, वह महापुरुष थे। अफगानी, अंग्रेज सब चले गए, लेकिन अपनी सोच और नस्ल के कुछ अपने प्रतिनिधि भारत में छोड़ गए।
इतनी कुर्बानियों के बाद जो आजादी हमें मिली उसका मूल्य हम समझ नहीं सके, क्योंकि आज जो भी लोग देश के लिए काम कर रहे हैं, वह उस काल में थे ही नहीं। सब आजादी के बाद के हैं या उन्हें यह शिक्षा नहीं दी गई की इस देश को एकता के एक सूत्र में बंधने के लिए हमारे पूर्वजों ने कितने कष्ट सहे । दुख तो तब होता है जब यह जानते बूझते गलत निर्णय ले लेते हैं और जब उस पर प्रश्न किया जाता है तो उन्हें एक अलग पंक्ति में खड़ा करके सामाजिक बहिष्कार की स्थिति पैदा कर दी जाती है। अभी हाल की ही कई राज्यों की घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है ।
उत्तरप्रदेश के हाथरस की घटना सामने है। जहां खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही है। एक पक्ष का कहना कुछ और है, दूसरा उसके विपरित कुछ कहता है और सरकार कुछ और कहती है। अब सारा दोष सरकार के ऊपर लगाकर एक नए अगड़ी पिछड़ी जातियों का मामला मानकर लड़ाई शुरू हो गई है। अब तक देश हिन्दू मुस्लिम की लड़ाई लड़ता रहा और सरकार इसी में अपना उल्लू सीधा करती रही। यह एक नया विवाद अगड़ी पिछड़ी का शुरू हो गया है। वैसे जातिवादी आग में तो भारत सुलग ही रहा था, लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे कोई उसने पलीता लगाने का प्रयास कर रहा है जिसका धुआं अब खुले तौर पर विभिन्न राज्यों में और यहां तक कि कस्बों तक में दिखाई देने लगी है ।
ऐसी स्थिति में ही यह बात याद आने लगती है, जब अंग्रेजी हुकूमत के दो अधिकारी अपने विचार विमर्श में यह मंत्रणा करते हैं कि भारत एक भौगौलिक नाम है – वह ज्ञानपूर्ण एक देश नहीं। सैकड़ों वर्ष पुरानी बातों को जब उस अंग्रेज के वंशज देखते होंगे तो वह मन ही मन अपने पूर्वजों की दूरदर्शिता पर खुश होते होंगे और यह स्वप्न देखने को विवश हो जाते होंगे कि आजतक भारत तो दो- तीन खंडों में ही विभाजित हुआ है , अब इस जातीय आग में जलकर कितने भागों में विभक्त होता है । क्या इसी जातिवादी भारत , स्त्रियों पर जुल्म करने वाले भारत, रोज रोज दंगे फसाद वाले भारत के ही निर्माण के लिए ही हमारे हजारों पूर्वज देश पर समर्पित हो गए थे और अपने आप हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। जरा इस पर गंभीरता से सोच विचार करिएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)