महिला रैफरी: ऊंची उड़ान लेकिन थैंकलेस जॉब

Women referees: Flying high but a thankless jobराजेंद्र सजवान

कुछ साल पहले तक फुटबॉल को पुरुषों का खेल माना जाता रहा लेकिन अब महिला खिलाड़ी भी तेजी से पहचान बना रही हैं और महिला फुटबॉल ने भी मजबूती से पांव जमा लिये हैं। तारीफ की बात यह है कि महिला फुटबॉल को संचालित करने का जिम्मा खुद महिला खिलाड़ियों ने अपने मजबूत कंधों पर उठा लिया है। राष्ट्रीय, राज्य और अन्य स्तर पर महिला अधिकारी व रैफरी अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह कर रही हैं।

यूरोपीय और लैटिन अमेरिकी देश न सिर्फ फुटबॉल के खेल में अग्रणी है, उनकी महिला रैफरी भी सालों से चर्चा में है। 2022 के फीफा वर्ल्ड कप में तीन महिला रैफरियों और इतनी ही सहायक महिला रैफरियों ने अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी किया था। फीफा ने अपनी रिपोर्ट में बकायदा महिला रैफरियों का जिक्र करते हुए कहा था कि महिला रैफरी कुछ मामलों में पुरुषों से बेहतर नजर आईं। मसलन पुरुष खिलाड़ी उन्हें आदर के साथ देखते हैं और सुनते हैं और उनके प्रति कम आक्रामकता दिखाते हैं।

कुछ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त महिला रैफरियों में स्टेफेनी फ्रेपार्ट, यामाशिता योशिमी, सलीमा मुकासांगा और कई अन्य महिला रैफरी ने फीफा वर्ल्ड कप, यूरो कप और अन्य आयोजनों में अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी किया। कुछ एक को पुरुषों से भी बेहतर आंका गया। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, ब्राजील, अर्जेंटीना , चीन , जापान आदि देशों में महिला रैफरी पुरुषों के मुकाबलों को बखूबी नियंत्रित कर रही हैं। इनकी संख्या सैकड़ों में हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय फुटबॉल लगातार गर्त में धंस रही है। एआईएफएफ की अंतर्कलह और गंभीरता की कमी के चलते भारतीय फुटबॉल उपहास की पात्र बनी है। लेकिन यह सच है कि महिला खिलाड़ी और रैफरी कुछ बेहतर करने का प्रयास कर रही हैं। देश में कई अच्छी और खेल की गहरी समझ रखने वाली रैफरी उभर कर आ रही हैं।

थैंकलैस जॉब:

हाल ही में दिल्ली की नीतू राणा और उषा भैंसोरा ने वार्षिक राष्ट्रीय फिटनेस टेस्ट पास किया है। दिल्ली की दोनों रैफरी उत्तराखंड मूल की हैं और राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी जाती हैं। नीतू पिछले आठ साल से रैफरी की भूमिका निभा रही है। दिल्ली के जानकी देवी कॉलेज में पढ़ने और खेलने के अलावा वह स्थानीय ग्रोइंग स्टार्स के लिए खेली है।

उषा भैंसोरा ने हंस क्लब और गढ़वाल हीरोज को सेवाएं दी हैं। ये दोनों महिलाएं राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी रह चुकी हैं और हर रैफरी की तरह वे भी रैफरी की भूमिका को ‘थैंकलैस’ जॉब मानती हैं। साथ ही कहती हैं कि को लड़कियां अच्छी खिलाड़ी रही हैं , रेफरी की भूमिका को भी सहजता से निभा सकती हैं।

डीएसए लीग में दोनों ने पुरुषों के मैचों का भी बखूबी संचालन किया। कुछ मैचों में विवाद भी हुए लेकिन नीतू और उषा मानती है कि हर एक रैफरी अपना काम ईमानदारी से अंजाम देता है । जो खिलाड़ी और टीम हार को नहीं पचा पाते, सारा इल्जाम रैफरी के सिर मढ़ देते हैं। दोनों की राय में महिला रेफरियों को समुचित प्रोत्साहन और सुरक्षा मिलनी चाहिए।

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