भोर उसके हिस्से की: परतों में कैद औरतों की कहानी….
विनायक मिश्र
…..हालाँकि रणविजय अपनी ‘लेखकीय’ में अत्यंत विनम्रता से कहते हैं मैं किसी विमर्श ( जैसे स्त्री- विमर्श) की बात नही करूंगा। मैं स्वयं भी किसी कृति की ऐसी ब्रैंडिंग के पक्ष में नही हूं। ये तो भला हो राजेंद्र जी (यादव) का कि साहित्य के एक फांक की तरह उसे पढा जाता है। तो यह तय है कि एक स्त्री के द्वारा, स्त्रियों के लिए लिखा साहित्य स्त्री का साहित्य है / स्त्री- विमर्श साहित्य है। (एक बार स्त्री की जगह दलित लगा कर पढे) गरज ये कि उनके लिखे का अनुभव ज्यादा ऑथेंटिक होगा, प्रामाणिक और विश्वसनीय होगा।
इस बार रणविजय ने स्त्रियों की कहानी लिखी है -वह भी तीन तीन स्त्रियों की। एक पुरुष, स्त्रियों की कहानी कैसे लिख सकता है? (…..जब तक वह” भोगा हुआ यथार्थ ” न बन जाए) रणविजय स्वीकार करते हैं – जो लिखा है वह स्वानुभूत नही है। तो वकौल आभिजात्य आलोचक …. सिद्ध हुआ कि कहानी किसी प्रकार के विमर्श के लायक नही है। (कहानी खारिज की जाती है मी लार्ड!)
फिर रणविजय सम्मुख होते हैं। कहते हैं- परकाया प्रवेश से लिपिबद्ध किया। सफलता का मूल्यांकन पाठक करेंगे।
तमाम गवाहों के बयानात और सुबूतों को मद्देनजर रखते हुए अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि ‘भोर’ जो कि एक स्त्री-केंद्रित उपन्यास है और एक पुरुष द्वारा लिखा गया है, एक सफल उपन्यास है। अवश्य पठनीय है। मतलब मस्ट रीड है। स्त्री के संसार में भोर एक दखल है। तीन तीन स्त्रियों का हलफनामा जहां उनके जीवन की, बचपन की छोटी छोटी इच्छाओं की वंचना दर्ज है। मुक्तिकामी उड़ान है। स्त्री-पुरुष का मनोविज्ञान है (पेज 9,32,73,97,117,) उनके अंतरंग के शेड्स है,किंतु एक सौन्दर्यबोध से अनुशासित।
(नोट–पाठक भी थोड़ा उन पृष्ठो पर ठहरें इसीलिए उन पेज नंबर का उल्लेख किया है।)
रणविजय के पहले अनेक पुरुष लेखकों ने महिलाओं की स्वतंत्रता, शिक्षा, उनके मनोविज्ञान आदि विषयों पर कलम चलायी है। गोदान में धनिया और मालती के माध्यम से निर्मला में निर्मला ,सेवा सदन में सुमन के माध्यम से प्रेमचंद ने नारियों की समस्या पर प्रकाश डाला है।
विराटा की पद्मिनी( वृंदावन लाल वर्मा )में कुमुद, त्यागपत्र (जैनेंद्र )में मृणाल ,नदी के द्वीप (अज्ञेय)में रेखा और गौरा ,मैला आंचल( फणीश्वरनाथ रेणु) में फुलिया, लक्ष्मी, राम प्यारी ,कमला ,ममता ,बसंती( भीष्म साहनी )में मुख्य पात्र बसंती ,मुझे चांद चाहिए( सुरेंद्र वर्मा) में यशोदा शर्मा, रतिनाथ की चाची (नागार्जुन) के माध्यम से उनके स्वतंत्र अस्तित्व की बात रखी गई है। आज स्त्री विमर्श समकालीन रचनाकारों का प्रमुख वर्ण्य विषय है। स्त्री विमर्श पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध समीक्षक शरद सिंह का कहना है, “स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारी मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए तो इन सभी के मूल में एक ही चिंतन दृष्टिगत होता है- स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना।
इसलिए स्त्रियों पर लिखने वाले पुरुष लेखक होने के लिए रणविजय कोई अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। वो एक जिम्मेदार लेखक अवश्य हैं। अपने लेखकीय दायित्व के प्रति स्पष्ट। रणविजय भोर में चेष्टारत दिखते हैं- स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करते हुए।
हां, उनका यू-टर्न लेना जितना आश्चर्यजनक है, उतना ही सुखद भी, विशेष कर कथ्य । कहां ड्रैगन गेम्स सा थ्रिलर, कहाँ स्त्रियों की बात! मैं सशंकित हूं रणविजय का अगला जॉनर भी शॉकिंग होगा। विषयों की विविधता को लेकर कृत संकल्प भी है। यह एक लेखक का ईवोल्यूशन है और बेहद आश्वस्तकारी। इस यू-टर्न की चर्चा ,कविता पद्मजा , अतुल्य व रणविजय के कुछ अन्य फैन्स-लेखक-पाठक ने भी की है। लेकिन इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नही दिखता मुझे। भगवती बाबू’ रेखा ‘ के बाद चित्रलेखा रचते हैं। यशपाल’ झूठा सच ‘के बाद दिव्या लिखते हैं। नागर जी ‘ये कोठेवालियां ‘ के बाद मानस के हंस लिखते हैं। और भी किताबें होगी।(मैने उतनी पढ़ाई नही की है।)
रणविजय, सत्य व्यास, नीलोत्पल मृणाल, दिव्य प्रकाश दुबे वाली पीढ़ी के रचनाकार है। इस पीढ़ी में बला की किस्सागोई है। क्या कहना है- उनकी प्राथमिकता है। कैसे कहना है- उसके प्रति उनमें अतिरिक्त सजगता नही दिखती। जैसी की गीतांजली श्री , मनोज रूपडा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, नीलाक्षी सिंह,चंदन पांडेय,आनंद हर्षुल में दिखती है। व्यक्तिगत रूप से मैं मानता हूं शिल्प के अतिरिक्त मलबे में कथा तत्व कही दबा कराहता रहता है। लेकिन शिल्पहीन कहानी को आलोचक लुगदी कह देते हैं। कहन में सपाटबयानी देखने लगते हैं। कहानी आलोचको की नही, पाठको की मुहताज है। इसलिए बेस्ट सेलर के कीर्तिमान बन रहे हैं।
रणविजय मुझे एक वाट्अप चैट में बताते हैं। ( कल्पना और यथार्थ के अनुपात पर बात करते हुए) ये तीनों चरित्र उन्होने गढ़े हैं जिनकी कुछ बातें किसी जीवित चरित्र से मेंल खाती हैं, जैसे appearence ,या मिजाज। घटनाक्रम पूरा काल्पनिक है सिवाय उन जगहों के जो मलेशिया,सिंगापुर में बिताए गए हैं। रणविजय रेलवे के और अपनी विदेश यात्रा के अनुभवो से कहानी को सींचते हैं। कहीं कहीं तो travalogue का सा आस्वादन है। मुझे तो लगता है, मदालसा, रणविजय का ही फीमेंल वर्जन है। कहानी में लेखकीय संलिप्तता कोई दोष नही है।
अब मै उपन्यास के पृष्ठों पर लिखे अपनी टिप्पणियो का सार रखूंगा। पूरा उपन्यास 24-25 उप शीर्षको में विभाजित है। अधिकांश फिल्मी गानों के मुखडे या विज्ञापन के टैगलाइन जैसे हैं ….डर के आगे जीत है…….सजना है मुझे सजना के लिए…..ओ बसंती पवन पागल….भागे रे मन कहीं…पंख होती तो उड़ जाती.रे …फुर्सत के रात दिन….। शीर्षक घटनाओं के आमुख होते हैं। थोड़ा सांकेतिक। स्टोरीलाइन घनी है ,सिलसिलेवार घटनाओं से भरी। किस्सा कहते हुए रणविजय सजग रहते है– जीवन की , तंत्र की, विद्रूपताओ पर टिप्पणी करते चलते हैं और .विचार को दर्शन में बदलते दिखते हैं ..जैसे… कॉरिडोर सत्ता की पहचान होते हैं तभी तो कॉरिडोर आफ पावर जैसा मुहावरा बना…..अनुभव से इंसान को पढ़ना आसान हो जाता है…..मीटिंग सबको एक बात बता कर पल्ला झाड लेने वाली एक नीयत है….सरकार में कुछ नया नहीं होता सिर्फ चरित्र बदलते हैं……जिंदगी दलदल में फंसे पांव की तरह होती है, उछलकूद करने से धंसने का खतरा रहता है…..ब्यूरोक्रेसी का सीधा उसूल है फील्ड में काम कर रहे व्यक्ति पर गोले बरसा दो….प्लेटोनिक लव घिसकर खत्म हो चुका चुम्बक है…कोई सच्चा सौन्दर्य दिख जाता है तो शरीर में शुचिता सम्यकता बढ़ जाती है…..शरीर में थकान की दो वजहें हैं मस्कुलर और मेंटल….नौकरी में या तो आप….career/ carrier ले सकते हैं या stand ( सायकिल के संदर्भ में भी पढा जा सकता है।)
भाषा में कुछ बातें खटकती है जैसे चपरासी को घंटी कर दिया (23) समय पालनता(8),नर्माई(77,) पखार/ पसार (104)।मंदालसा नही मदालसा सुनता आया हूं। पल्लवी और मदालसा का अपने बच्चों को छोड़कर विदेश जाना थोडा सहज नही लगता। हो सकता है उनके बोल्डनेस को निर्मित करने के लिए यह स्टेप लिया गया हो।
रणविजय की भाषा में अनेक मुहावरे आते हैं जो अर्थ छवि बनाते हैं। ‘ एक छंटाक उत्साह, मुट्ठीभर धूप, हवा का एक टुकड़ा,तीन चौथाई मुस्कान,चिथडा भर सुख,हथेली भर आसमान ,निन्यानवे सेंटीमीटर औपचारिकता, एक सेंटीमीटर मौन ….।यह अच्छा लगा कि रणविजय ने पाठकों की सहूलियत के लिए फुटनोट में तकनीकी शब्दों को स्पष्ट किया है। विदेश की धरती पर वहां प्रयोग होने वाले शब्द हों या किसी अंग्रेजी गाने का संदर्भ ,चाहे रेलवे अभियांत्रिकी की शब्दावली ।
संभव है यह सायास न हों। विज्ञान और साहित्य का अद्भुत कॉकटेल बनाते हैं रणविजय। जैसे – अधिकांश सवालों के जबाव binary नहीं होते….every maxima will be followed by a zero and a minima too ….atom energy release कर रहा था……हर electron को बैलेंस करने के लिए एक proton होगा……। उनकी स्मृति उनका अवचेतन बहुत से मेंटाफर, बहुत से बिम्ब गढते हैं जहां दमित इच्छाएं हैं , वर्जनाओं को तोडने की बेचैनी है (जैसे मिडी पहनना वोदका पीना, मसाज लेना, हैप्पी एंडिग),मध्यवर्गीय मूल्यों से उपजा अपराध बोध भी है ( पेज 82 ,209,)।पृष्ठभूमि में आकाश , समुद्र , लहरें, टावर की ऊंचाई उनके रूपक है।
कुल जमा सवा दो सौ पृष्ठो का उपन्यास है। अमेज़न पर उपलब्ध है। दिल्ली के पुस्तक मेंले में चर्चित रही। साहित्य विमर्श प्रकाशन से छपी है। 249/- रू मूल्य है। आनलाइन कुछ सस्ती पड़ेगी। युवतियों के लिए एक आकाश एक क्षितिज खोलता है भोर। उनके unexplored मन की परतों को, गांठों को समझने में मदद करता है। पुरुष भी अपने अहंकार के आइने में खुद को थोड़ा संवार सकते हैं। भोर एक बार पढी जा सकती है।
डिस्क्लेमर–: पुस्तक के कंटेंट को आप अपनी अभिरूचि के अनुसार पठनीय अथवा अपठनीय के वर्ग में डाल सकते हैं। उपन्यास पर मैंने अपना पक्ष भर रखा है। कृपया इसे पुस्तक समीक्षा न समझें ।