‘बिटिया हम शर्मिंदा हैं’, फ़िर देश भर में गूंजा नारा
शिवानी रज़वारिया
दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश के कई जिलों में हाथरस की बिटिया के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म को लेकर लोगों में गुस्सा उबल रहा है। इस गुस्से को और उबालने के लिए पुलिस ने पीड़िता के शव का रात के अंधेरे में परिवार के लोगों के बिना ही अंतिम संस्कार कर दिया, जिसके खिलाफ पीड़िता के परिवार और देश के कई राज्यों में लोगों में आक्रोश पैदा हो गया हैं। आखिकार ऐसा क्यों किया गया? ये सच में एक बड़ा सवाल है। सनातन धर्म के अनुसार देखा जाए तो किसी भी मृत व्यक्ति का सूर्यास्त के बाद अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। और यहां तो मृतक के परिवारजनों तक हो सूचित नहीं किया गया।
एक बार फिर सड़कों पर बिटिया हम शर्मिंदा हैं के नारों की आवाजें गूंज रही हैं। एक बार फिर सड़कों पर देश की बेटियों की सुरक्षा को लेकर आवाज़ उठ रही हैं। एक बार फिर लोगों का गुस्सा उमड़ा है। एक बार फिर देश की एक बिटिया को इंसाफ दिलाने के लिए गुहार लगाई जा रही है। विरोध किया जा रहा है। प्रदर्शन किया जा रहा है। पर यह सब कुछ नया नहीं है। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जो आप से और हम से नजरअंदाज हो जब जब देश के किसी कोने में किसी बेटी के साथ ऐसी नृशंसता होती है ।तभी हां तभी आप और हम परिस्थिति की गंभीरता को समझ पाते है। सड़कों पर यूं ही उतर आते हैं। सत्ताधारी हो या विपक्ष दोनों संज्ञान में आते हैं। कोई आर्थिक मदद के नाम पर मुआवजे की बात करता है। तो कोई बिटिया हम शर्मिंदा हैं पोस्टर-पत्र लेकर इंसाफ की बात करता है। विपक्ष को सत्ता पर सवाल दागने का मौका मिल जाता है। और सरकार को अपनी नाकामयाबी छुपाने के लिए हाथरस की बेटी का यू आधी रात संस्कार करवाना पड़ता है। बेटियों की सुरक्षा के नाम पर देश में दशकों से यही तो चलता आ रहा हैं।
2012 में निर्भया के लिए पूरा देश मोमबत्तियां लेकर के सड़कों पर उतर आया था फिर भी देश की बेटी को इतनी दरिंदगी झेलने के बाद 7 साल लग गए इंसाफ मिलने में। निर्भया की मां को, उसके परिवार को 7 साल तक मानसिक तनाव के साथ जीना पड़ा। अपनी बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए उसके गुनाहगारों को फांसी के तख्ते तक पहुंचाने के लिए 7 साल का लंबा सफर तय करने के बाद और तमाम मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने के बाद एक मां को अपनी बेटी के लिए इंसाफ मिला।
निर्भया हत्याकांड के बाद सबको ऐसा लगा कि अब देश में बेटियों को लेकर सुरक्षा व मानसिकता दोनों ही बदल जाएंगे पर ऐसा हुआ नहीं, ना ही बेटियों को सुरक्षा मिली, ना ही इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाएं रूकी और ना ही लोगों की मानसिकता बदली।
बेटी दिल्ली से हो या हिमाचल से उत्तर प्रदेश के उन्नाव की हो या लखनऊ के हाथरस की पर सरकारों की ढीली मानसिक व्यवस्था हर बार मुंह के बल गिरती हैं।मानसिक व्यवस्था जो सिर्फ सरकार के मानस पटल पर गड़ी जाती है (ख़ासकर देश की महिलाओं के प्रति) ज़मीनी स्तर तक पहुंच ही नहीं पाती।
बातें और भाषण बहुत बड़े बड़े दिए जाते हैं पर आज तक कोई भी सरकार कोई भी कानून ऐसे जघन्य अपराधों को रोक नहीं पाया और ना ही कोई सख़्त क़दम उठा पाया है।
लोगों की स्मृति में भी तभी तक एक घटना चलती है जब तक मीडिया उसे चलाती है। जैसे ही मीडिया चैनलों का इंटरेस्ट न्यूज़ में कम होता जाता है वैसे ही लोगों का हौसला भी ध्वस्त होता जाता है। मीडिया के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।