प्रकृति को करीब से जानने का महापर्व है छठ
अनंत अमित
भारतीय संस्कृति में समाहित यह पर्व प्रकृति और मानव के बीच तल्लीनता को स्थापित करता है। घर से घाट तक लोक सरोकार और मेल-मिलाप का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। पूजन में इस्तेमाल की जानेवाली सामग्री प्रकृति के अनुकूल व समाज को जोड़नेवाली होती है। भगवान भाष्कर की आराधना और लोक आस्था का महापर्व छठ अनुष्ठान नहीं बल्कि स्वच्छ पर्यावरण का संदेश देता है। गांव की गलियों से लेकर शहर के चौक-चौराहों तक प्रकृति के साथ निखरती है छठ की छटा। घर से लेकर घाट तक लोक सरोकार और मेल मिलाप का अद्भूत नजारा देखने को मिलता है। यह पर्व वैज्ञानिक महत्व के साथ-साथ सामाजिक समरसता एवं एकजुटता को बल प्रदान करता है। मान्यता है कि इस पवित्र पर्व में भगवान भाष्कर की पूजा अर्चना से छठ मइया सभी की मन्नतें पूरी करती है। पर्व के मौके पर गाए जाने वाले लोकगीतों से नारी सशक्तीकरण, प्रकृति संरक्षण सहित कई संदेश मिलता है। छठ मइया की एक गीत रूनकी-झुनकी बेटी मांगीला.., मांगीला पठत पंडित दामाद.. गीत सुशिक्षित समाज में बेटियों की महत्ता एवं शिक्षा पर बल देता है।
इस पर्व की स्वच्छता पहली शर्त है। मान्यता है कि व्रत के दौरान स्वच्छता का ख्याल नहीं रखने से छठ मइया नाराज हो जाती है। यह अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते एवं डूबते सूर्य को बगैर किसी आडंबर व दिखावा के श्रद्धा के साथ आराधना की जाती है। इस पर्व के शुरू होते ही स्वच्छता के प्रति लोगों की मानसिकता व आदतें स्वत: बदल जाती है।
छठ में प्रसाद के लिए छोटे-बड़े उपकरणों का प्रयोग वर्जित है। मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद तैयार होता है। आम की सूखी लकड़ी बतौर जलावन। कोयला या गैस चूल्हे का उपयोग व्रती नहीं करती है। छठ पर्व सूर्य की उर्जा की महत्ता के साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को संजोता है।
इस पर्व में बांस के सुप, डालिया, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी का दीया, ढकना, अगरबत्ती सहित अन्य सामग्री बड़ा महत्व रखता है। छठ के मौके पर बगैर किसी सरकारी सहायता के इन कुटीर उद्योगों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन मिलता है। खासकर गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले हुनरमंदों को यह पर्व समाज में स्थान दिलाता है।
समाज और परम्परा के साझे को समझे बिना भारतीय चित्त तथा मानस को समझना मुश्किल है। आज जब पानी की स्वच्छता के साथ उसके संरक्षण का सवाल इतना बड़ा हो गया है कि इसे अगले विश्वयुद्ध तक की वजह बताया जा रहा है, तो यह देखना काफी दिलचस्प है कि भारतीय परम्परा में इसके समाधान के कई तत्व हैं।
जल संरक्षण को लेकर छठ पर्व एक ऐसे ही सांस्कृतिक समाधान का नाम है। अच्छी बात है भारतीय डायस्पोरा के अखिल विस्तार के साथ यह पर्व देश-दुनिया के तमाम हिस्सों को भारतीय जल चिन्तन के सांस्कृतिक पक्ष से अवगत करा रहा है। करीब दो दशक पहले कई देशों के संस्कृति प्रेमी युवाओं ने बेस्ट फॉर नेक्स्ट नाम से अपने एक अभिनव सांस्कृतिक अभियान के तहत बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ व्रत पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई।
इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी का जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं।
कविताई के अन्दाज में कहें तो छठ पर्व आज परम्परा या सांस्कृतिक पर्व से ज्यादा सामयिक सरोकारों से जुड़े जरूरी सबक याद कराने का अवसर है। एक ऐसा अवसर जिसमें पानी के साथ मनमानी पर रोक, प्रकृति के साथ साहचर्य के साथ जीवन जीने का पथ और शपथ दोनों शामिल हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जलवायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिये किसी भी पहल से पहले संयुक्त घोषणा पत्र की मुँहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहाँ परम्परा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएँ। पर सबक की पुरानी लीक छोड़कर बार-बार गलती और फिर नए सिरे से सीखने की दबावी पहल ही आज हमारे शिक्षित और जागरूक होने की शर्त हो गई है।
भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसी मेल को लोकरस और लोकानन्द कहा है। इस रस और आनन्द में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से भरता है और न ही किसी बड़े ब्राण्ड या प्रोडक्ट के सेल ऑफर को लेकर किसी आन्तरिक हुल्लास से भरता है। पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की होड़ के बीच इस लोकरिंग की एक वैश्विक छटा भी उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरिशस, त्रिनिदाद, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिये हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं।
जिस पर्व को ब्रिटिश अधिसूचना पत्रों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जलस्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के सम्बन्धों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुँचना सबसे आसान है। छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा पर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है।
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भिक्त और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बिजली के लट्टुओं की चकाचैंध, पटाखों के धमाके और लाउडस्पीकर के शोर से दूर यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है। छठ पर्व को अगर हम धार्मिक दृष्टि से हटकर व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो छठपर्व हमें जीवन का एक बड़ा रहस्य समझाता है। छठ पर्व के नियम पर गौर करें तो पाएंगे किछठ पर्व में षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते सूर्य की पूजा करके उन्हें फल एवं पकवानों का अर्घ्य दिया जाता है। जबकि सप्तमी तिथि को उदय कालीन सूर्य की पूजा होती है। दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है। वेद पुराणों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवतः इसलिए प्रमुखता दी गई है, ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।
(लेखक भाजपा किसान मोर्चा के पदाधिकरी हैं।)