गौरवशाली अतीत और निराशा के अंधकार में फंसी कांग्रेस
कृष्णमोहन झा
हाल ही में बिहार विधानसभा की 243 सीटों के लिए संपन्न चुनावों में कांग्रेस को मात्र 19 सीटों पर जीत का स्वाद चखने मिला है जबकि उसने राज्य की सबसे मजबूत क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन के एक बड़े घटक के रूप में सदन की 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था।
बिहार में कांग्रेस के इस निराशाजनक प्रदर्शन पर राजद के नेता भी यह कहने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं कि अगर राजद ने इन चुनावों में कांग्रेस के साथ कोई चुनावी समझौता नहीं किया होता तो राजद अकेले अपने दम पर बहुमत हासिल कर आज सत्ता में होता। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री चिदंबरम का मत है कि कांग्रेस अगर राज्य विधानसभा की केवल 45 सीटों पर चुनाव लड़ती तो उसका स्ट्राइक रेट कहीं बेहतर होता ।
गौरतलब है कि इन चुनावों में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट मात्र 27 प्रतिशत रहा है। बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री चिदंबरम,गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राज्य में पार्टी की इस निराशाजनक हार के कारणों की समीक्षा की पुरजोर मांग कर रहे हैं। उन्होंने दो टूक शब्दों में पार्टी के अंदर आत्म मंथन की आवश्यकता जताई है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका-गांधी वाड्रा ने बिहार में कांग्रेस की शोचनीय हार पर अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है।
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि इन चुनावों में जहां तक ओर भाजपा , जदयू और राजद के नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में कई दिनों तक धुआंधार चुनावी रैलियों को संबोधित किया वहीं दूसरी ओर कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार हेतु राहुल गांधी मात्र तीन दिनों के लिए बिहार गए और 6 रैलियों को संबोधित किया।
अब तो यह भी कहा जा रहा है कि जब बिहार में भाजपा, जदयू और राजद के वरिष्ठ नेता अपनी पार्टी की जीत हेतु रात दिन एक करने में जुटे हुए थे तब राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका के साथ असम में पिकनिक कर रहे थे। पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्गति के बाद जिस तरह के बयान दे रहे हैं उनमें परोक्ष रूप से गांधी परिवार पर निशाना साधा गया है यद्यपि इन नेताओं ने ऐसे आरोपों से साफ इंकार किया है ।उनका कहना है कि वे कांग्रेस के हित में ही आत्म मंथन पर जोर दे रहे हैं ताकि चुनावों में लगातार हो रही हार उसकी नियति न बन जाए।
गौरतलब है कि गत अगस्त माह में भी कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को संबोधित के पत्र में पार्टी के पूर्ण कालिक अध्यक्ष के निर्वाचन की मांग की थी जिस पर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने नाराजगी जताई थी । उनका कहना था कि सोनिया गांधी की अस्वस्थता के दौरान इस तरह का पत्र लिखने वाले नेताओं को एक बार सोचना चाहिए था । उसका पत्र ने पार्टी के पूर्ण कालिक अध्यक्ष के निर्वाचन का मार्ग तो प्रशस्त नहीं किया लेकिन पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया गया और पूर्ण कालिक अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी का कार्य काल और बढ़ा दिया गया। उक्त पत्र लिखने वाले नेता कुछ माह तक मौन रहने के बाद अब फिर मुखर हो उठे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन अगर अच्छा रहा होता तो आज पार्टी वहां राजद के साथ सत्ता में भागीदारी कर रही होती। तब कांग्रेस के जो वरिष्ठ नेता इस हार के लिए परोक्ष रूप से गांधी परिवार पर निशाना साध रहे हैं वे तब आत्म मंथन की आवश्यकता व्यक्त नहीं करते।
दरअसल कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार विधानसभा चुनावों को एक अवसर के रूप में देखने का महत्त्व ही समझा। शायद राहुल गांधी को भी पहले ही यह अहसास हो गया था कि बिहार चुनावों में कांग्रेस को बहुत ज्यादा की उम्मीद नहीं करना चाहिए इसलिए पार्टी के चुनाव अभियान में वह जोश और जुनून दिखाई नहीं दिया जो 135 पुराने राष्ट्रीय राजनीतिक दल की पहिचान होता। इसीलिए राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा चुनावों में पार्टी की जीत की संभावनाओं को बलवती बनाने में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई।इसका प्रतिकूल प्रभाव पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल तो पड़ना ही था। इसीलिए शायद राहुल गांधी सहित पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व इस हार से असहज महसूस नहीं कर रहा है लेकिन आगे चलकर पार्टी को इसकी बड़ी क़ीमत यह चुकानी पड़ सकती है कि दूसरे विपक्षी राजनीतिक दल कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता करने से तौबा करने लगें। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता करने वाली समाजवादी पार्टी को जब शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था तब वहां भी समाजवादी पार्टी को कांग्रेस के साथ उस समझौते पर अफसोस हुआ था।
लगभग पांच दशकों तक केंद्र में सत्तारूढ़ रही 135 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी अगर आज कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू पार्टी बन गई है तो यह निःसंदेह उसके लिए दुर्भाग्य का विषय है और इस पर आश्चर्य ही व्यक्त किया जा सकता है कि जिस गांधी परिवार के पास पार्टी की बागडोर है उसे अभी भी आत्ममंथन की बातें बेमानी लगती हैं।कांग्रेस पार्टी के पास इस समय कोई पूर्ण कालिक अध्यक्ष नहीं है ।गत वर्ष संपन्न लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की शर्मनाक हार की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए हुए जब राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था तब उनकी यह मंशा थी कि गांधी परिवार से बाहर के कोई नेता को यह जिम्मेदारी सौंपी जाए परन्तु उस समय सोनिया गांधी को एक साल के लिए पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष चुन कर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और एक साल बीतने के बाद भी पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनने के लिए कोई पहल नहीं की गई। जिन नेताओं ने इसके लिए आवाज उठाई उन्हें किनारे कर दिया गया। वहीं नेता आज फिर मुखर हो उठे हैं और उनके बोल अब पहले से भी अधिक तीखे हैं।
गुलाम नबी आजाद ने कहा है पांच सितारा होटलों में बैठ कर चुनाव नहीं जीते जा सकते। राहुल गांधी के लिए परोक्ष रूप से उनके मुंह से ‘बच्चा’ शब्द का इस्तेमाल यही साबित करता है कि राहुल गांधी के बारे में उनकी राय अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से कुछ अलग नहीं है। गौरतलब है कि बराक ओबामा ने हाल में ही प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ ए प्रामिस्ड लैंड ‘में राहुल गांधी की तुलना स्कूल के उस नर्वस छात्र से की है जो अपने शिक्षक को प्रभावित करने की कोशिश तो की परंतु उसके अंदर विषय में महारत हासिल करने की योग्यता और जुनून की कमी है। आज जब चुनावों में पार्टी की हार का सिलसिला थमने के कोई आसार नजर नहीं आने के कारण गांधी परिवार और विशेषकर राहुल गांधी पर परोक्ष रूप से निशाने साधे जा रहे हैं तब उनके बारे में बराक ओबामा की इस टिप्पणी ने जहां गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान पार्टी नेताओं को असहज स्थिति का सामना करने केलिए विवश कर दिया है वहीं पार्टी के अंदर मौजूद उनके आलोचकों को अंदर ही अंदर मुस्कराने का अवसर भी प्रदान कर दिया है। अगर ऐसा नहीं होता तो आत्म मंथन की मांग करने वाले नेताओं ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के बारे में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति की इस टिप्पणी पर आपत्ति जताने में थोड़ी बहुत दिलचस्पी तो अवश्य दिखाई देती।बराक ओबामा की इस टिप्पणी से भाजपा कितनी गदगद है इसका अनुमान भाजपा नेताओं के उन बयानों से लगाया जा सकता है जो उन्होंने उक्त पुस्तक में राहुल गांधी के बारे में की गई टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया में दिए हैं।
कांग्रेस में आत्म मंथन अथवा पूर्ण कालिक अध्यक्ष के निर्वाचन की मांग करने वाले नेताओं के बयान आने के बाद अब गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान पार्टी नेताओं ने भी एक जुट होकर मोर्चा संभाल लिया है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सिब्बल के बयान को आपत्तिजनक बताते हुए कहा है कि पार्टी के मसले पार्टी फोरम में ही उठाए जाना चाहिए ।इस पर सिब्बल पलटवार करते हुए कहा कि मैंने जो भी बात कही है वह सारी जनता जानती है। सिब्बल इस आरोप से साफ इंकार करते हैं कि उनका निशाना गांधी परिवार की तरफ है। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी कहते हैं कि बिहार में पार्टी की हार पर हाय-तौबा मचाने वाले कपिल सिब्बल को यह बताना चाहिए कि बिहार में पार्टी के प्रचार अभियान में उनका कितना योगदान था। सिब्बल को उन्होंने यह सलाह भी दी है कि अगर वे वास्तव में कांग्रेस के हितैषी हैं तो उन्हें पश्चिम बंगाल जाकर पार्टी के पक्ष में काम करना चाहिए जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं।
कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान एक और पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद का कहना है कि कुछ गिने चुने लोगों को छोड़ कर पूरी पार्टी सोनिया गांधी के नेतृत्व में एक जुट है । जाहिर सी बात है कि कांग्रेस अब दो धड़ों में बंटी दिखाई दे रही है ।एक वह जो कांग्रेस में गांधी परिवार के वर्चस्व का समर्थक है और दूसरा वह जो ने पूर्णकालिक अध्यक्ष और आत्ममंथन के लिए आवाज उठाने में कोई संकोच नहीं कर रहा है।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि कांग्रेस आज केवल नेतृत्व का संकट भर नहीं है बल्कि वह अस्तित्व के संकट से भी जूझ रही है। चिदंबरम का यह कहना ग़लत नहीं है कि जमीनी स्तर पर पार्टी का संगठन कमजोर हो चुका है और गुलाम नबी आजाद की इस बात से भीअसहमत नहीं हुआ जा सकता कि पार्टी के बड़े नेताओं का जमीनी कार्यकर्ताओं से संवाद समाप्त हो चुका है । गुलाम नबी आजाद तो अतीत में यह तक कह चुके हैं कि अगर यही स्थिति रही तो पार्टी को अगर पचास सालों तक विपक्ष में बैठने के लिए तैयार रहना चाहिए।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि गांधी परिवार कांग्रेस में अपना वर्चस्व छोड़ने के लिए तैयार नहीं है और राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष पद किसी और नेता को बिठाकर पार्टी की बागडोर भी अपने पास रखना चाहते हैं। पार्टी नेताओं के बहुमत की अभी भी यही धारणा है कि गांधी परिवार से दूर होकर कांग्रेस कभी अपना गौरवशाली अतीत वापस नहीं पा सकती। दूसरी ओर यह भी एक सच्चाई है कि उसके पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता को चुनौती देने का साहस रखने वाला कोई नेता नहीं है।
लेकिन अपने गौरवशाली अतीत पर गर्व करने वाली 135 वर्ष पुरानी कांग्रेस पार्टी से यह अपेक्षा भी उचित नहीं होगी कि वह हर बार पहले से भी अधिक शर्मनाक हार को अपनी नियति मान कर चुप बैठ जाएं।एक जीवंत लोकतंत्र में अवसरों की कभी कमी नहीं होती। बिहार की हार उसके लिए एक और बड़ा झटका अवश्य है परंतु इससे सबक लेकर वह अगले साल पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु,केरल, जम्मू-कश्मीर , पुडुचेरी आदि राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में एक जुट होकर उम्मीद की कोई किरण तलाशने की कोशिश तो कर ही सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)