उम्मीद जगाने वाली कांग्रेस की दमदार वापसी होगी !
निशिकांत ठाकुर
ऐसा लग रहा है, जैसे कांग्रेस के कुछ नेता हराकिरी करके अपने ही दल को समाप्त कर देने को आतुर हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि मौकापरस्त कुछ नेता भारतीय जनता पार्टी के साथ अंदरखाने मिलकर उसके ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे को साकार करने पर तुले हों। आज वह समय नहीं रहा जब कांग्रेस में महात्मा गांधी,पं. जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद,सरदार बल्लभ भाई पटेल, बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाली शख्सियत हुआ करती थीं जिनका मकसद भारत से अंग्रेजों को भगाकर भावी पीढ़ियों को स्वतंत्र देश के नागरिक के रूप में स्वच्छंद भाव से जीने की आजादी दिलाना था।
ऐसे महामानवों का उद्देश्य देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराना था । इसी वजह से कांग्रेस की तूती बजती थी। हजारों प्राणों की आहुति के बाद देश को आजादी मिली। हालांकि, उस दौर में भी कांग्रेस में कई बार उतार—चढ़ाव आए, लेकिन हर बार कांग्रेस और मजबूती से उभरकर सामने आई। वर्षों तक इस दल का शासन देश पर रहा। शून्य से अपनी स्थिति से खुद को उठाने के साथ देश को भी विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाती रही। हालांकि, बाद में कुछ गलत नीतियों ने उसे जनता की नजरों से गिरा दिया जिसके कारण पिछले कुछ वर्षों से वह सत्ता से बाहर है। वर्षों से इस पर मनन किया जाता रहा है कि सवा सौ वर्ष पुरानी इस पार्टी को अभी पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में मुंह की क्यों खानी पड़ी! कहीं भी कांग्रेस की सरकार क्यों नहीं बन सकी! लोगों को लगने लगा कि अब यह दल जनता में अपनी साख शायद बचा नहीं पाएगा।
पिछले दिनों जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए उनमें एक पंजाब ही कांग्रेस के कब्जे में था। वहां उसकी सरकार थी, लेकिन एक सड़ी मछली ने पूरे तालाब को गंदा कर दिया जिससे पंजाब भी कांग्रेस के हाथ से फिसल गया। पंजाब, जहां भाजपा की आंधी में भी अपनी पार्टी की सरकार को बचाकर रखने वाले कद्दावर नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह को सत्ताच्युत करके अपने ही हाथों उस राज्य को आम आदमी पार्टी के हाथों में सौंप दिया। दूसरा राज्य उत्तराखंड था, जहां कांग्रेस को कुछ उम्मीद थी कि हो सकता है कि भाजपा के हाथों से सत्ता खिसक जाए, लेकिन भाजपा की नीति के सामने उसकी एक नहीं चली और फिर से सरकार भाजपा की ही बनी। रही बात उत्तर प्रदेश, गोवा और मणिपुर की, तो इन राज्यों के लिए तो पहले से ही तय था कि वहां भाजपा फिर से अपनी सरकार बनाएगी। और ऐसा ही हुआ भी।
भाजपा के नीति—निर्माताओं ने इन राज्यों की जनता की मानसिकता को पढ़कर अच्छी तरह समझ लिया था और उसके अनुसार ही अपनी नीतियों पर काम करके जनमानस के मन में अपने दल के प्रति विश्वास जगाया और फिर से सरकार बनाकर जनता में अपना विश्वास बरकरार रखने में कामयाब रहे। इन पांच राज्यों के चुनाव में यही लगा कि शायद विपक्ष का कोई ऐसा चेहरा ही नहीं है जो इन राज्यों में चुनाव में अपनी पार्टी को जीत दिला सकें। इन राज्यों के बड़े—बड़े कांग्रेस के नेता राज्य में अपनी सरकार बनाने की बात कौन करे, वह अपनी सीट भी नहीं बचा सके। ऐसा लगता है कि मतदाताओं के मन में कांग्रेस के प्रति उदासीनता का भाव आ गया है और उसकी समझ में यह बात आ गई कि भाजपा का कोई विकल्प आज कांग्रेस के पास नहीं है।
अभी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस की स्थिति पर एक प्रस्ताव पार्टी हाईकमान के समक्ष रखा। इसके तुरंत बाद से कांग्रेस के असंतुष्ट नेता इस बात को बर्दास्त नहीं कर पा रहे हैं कि कोई उसकी कमी को दूर करने के लिए उसे सलाह दे, उनसे राय-मशविरा करे। इसलिए प्रशांत किशोर के हाई कमान को प्रस्ताव देने के बाद से ही असंतुष्ट खेमा अपनी पार्टी के अंदर मरने—कटने और दल को छिन्न—भिन्न करने के लिए तैयार हो गए हैं। ऐसे असंतुष्ट नेता प्रशांत किशोर को कांग्रेस में शामिल करने और उनके प्रस्ताव को ढकोसला मानते हुए यह भी कह रहे हैं कि इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वह इस बात पर अडिग होकर कहते हैं कि पार्टी की ध्वस्त हो चुकी जमीन को वापस हासिल करना कोई जादू का खेल नहीं है कि एक रणनीतिकार के जादुई नुस्खे से अचानक सब कुछ सही हो जाएगा। उनका यह भी कहना है कि कांग्रेस की राजनीतिक वापसी की चाबी इसके लाखों कार्यकर्ताओं के पास है, लेकिन दुर्भाग्यवश जमीन से आ रही इस आवाज को भी नजरंदाज किया जा रहा है। वे यह भी कहते हैं कि बैठक में उनको अलग रखकर उनके भरोसे को तोड़ा गया। बैठक में सबसे संवाद करते हुए प्रस्ताव पर कांग्रेस अध्यक्ष को विचार करना चाहिए था, जो नहीं किया गया। वे यह भी कहते हैं कि इस तरह कुछ चुनिंदा लोगों के साथ बैठक करना पार्टी के लिए अहितकारी ही होगा। इसे पार्टी के फायदे की बात कहना निहायत बेवकूफी है। यह भी कहा जा रहा है कि असुंतुष्ट गुटों का गुस्सा इतना बढ़ गया है कि कुछ नेता इस प्रकरण पर बातचीत के मूड में भी नहीं हैं तथा अंदर—ही—अंदर पार्टी में बड़े विस्फोट की तैयारी में जुट गए हैं।
यहां तक कि केरल से कांग्रेस के वरिष्ट नेता पी. जे. कुरियन के इस बयान का हवाला देते हुए कहा गया है कि नेहरू गांधी परिवार को पार्टी नेतृत्व छोड़ देना चाहिए। हो सकता है कि इस मामले पर चिंतन शिविर के बाद इस दिशा में कुछ बड़ी बात हो। ज्ञात हो कि 13 मई से राजस्थान के उदयपुर में तीन दिनों के लिए चिंतन शिविर होने जा रहा है, जिसमें देश के विभिन्न भागों से लगभग 400 नेता हिस्सा लेंगे। इसकी तैयारी में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राज्य के प्रभारी अजय माकन जुटे हुए हैं और उदयपुर का दौरा भी कर चुके हैं। जो भी हो , प्रशांत किशोर ने जो सुझाव दिया है उस पर कांग्रेस अध्यक्ष ने आठ कमेटी बनाकर उसकी मजबूती को परख कर उसपर अपने वरिष्ठ नेताओं को रिपोर्ट देने को कहा है , इसलिए प्रशांत किशोर का कांग्रेस में शामिल होने का बाजार गर्म था, उस पर विराम लग गया है, क्योंकि चुनावी राजनीतिकार प्रशांत किशोर स्वयं कांग्रेस में जाने का खण्डन कर दिया है ।
आइए, अब देखते हैं कि पीके के नाम से मशहूर प्रशांत किशोर का कांग्रेस के उत्थान के लिए जो प्रस्ताव दिया उसका लब्बो-लुआब क्या है। बताया जाता है कि प्रशांत किशोर ने पार्टी बैठक में एक प्लान बताया है जिसके मुताबिक कांग्रेस 370 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। इतना ही नहीं, कुछ राज्यों में गठबंधन को लेकर भी फॉर्मूला सामने रखा गया है। प्रशांत किशोर ने यह भी सुझाव दिया है कि कांग्रेस को यूपी, बिहार और ओडिशा में अकेले चुनाव लड़ना चाहिए, जबकि तमिलनाडु, प. बंगाल और महाराष्ट्र में गठबंधन करना चाहिए। पीके के इस प्लान पर राहुल गांधी ने भी सहमति जताई है। पीके ने एक विस्तृत प्रेजेंटेशन के जरिये बताया था कि कैसे कांग्रेस को चुनाव की रणनीति तैयार करने की जरूरत है। उन्होंने बताया है कि कांग्रेस को राज्य—दर—राज्य चुनावी रणनीति पर आगे बढ़ने की जरूरत है।
इसके अलावा पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने की जरूरत पर भी बल दिया गया है। प्रशांत किशोर ने कहा कि पार्टी के वैसे राज्यों में गठबंधन के लिए ज्यादा हाथ—पांव नहीं मारना चाहिए जहां उसकी उपस्थिति नगण्य है, बल्कि यहां पार्टी को नई शुरुआत के बारे में सोचना चाहिए। इसके अलावा कांग्रेस को वैसे साझीदार को चुनने को प्राथमिकता देनी चाहिए जो अपना वोट ट्रांसफर करवा सके, तभी चुनावी गठबंधन सफल होगा। प्रशांत किशोर के मिशन—2024 के प्रेजेटेंशन को लेकर कांग्रेस कितनी संजीदा है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी कमान खुद प्रियंका गांधी ने संभाल रखी है। पीके के प्रस्ताव पर प्रियंका, पी. चिदंबरम, केसी वेणुगोपाल, जयराम रमेश, अंबिका सोनी, मुकुल वासनिक, रणदीप सुरजेवाला 10—जनपथ पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ चार घंटे तक माथापच्ची की। विदेश दौरे पर होने के कारण राहुल गांधी बैठक में शामिल नहीं हो पाए थे। इस बीच कांग्रेस में अभी भी दुविधा की स्थिति है। कुछ नेताओं ने दावा किया है कि पिछले सप्ताह सोमवार को हुई बैठक अगले विधानसभा चुनाव को लेकर है और प्रशांत किशोर को लेकर इसमें कोई चर्चा नहीं की गई है। हालांकि, कहा यह भी जा रहा है कि इस संबंध में पीके ने कांग्रेस अध्यक्ष से अलग से मुलाकात की।
एक सामान्य सोच तो यही बताती है कि मजबूत विपक्ष का होना देश हित में होता है, लेकिन विपक्ष के रूप में नहीं सत्ता पाने के लिए यदि कोई तर्कसंगत प्रस्ताव देता है तो उसे स्वीकार करने और उस पर अमल करने में कांग्रेस के कुछ शीर्ष नेतृत्व क्यों पार्टी में अलगाव का बीजारोपण करने लगे हैं, यह समझ से परे है। किसी की सलाह पर बैठक करके उस पर मंथन करके निर्णय लेने में क्या बुराई है! कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टी तो कभी रही ही नहीं। उसका गठन ही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के लिए किया गया था। यह ठीक है कि इस पार्टी का गठन भारत में कार्यरत एक अंग्रेज अधिकारी एओ ह्यूम ने सन् 1885 में किया था, लेकिन उस काल में भी उस पार्टी में शीर्ष नेतृत्व तो उस समय के देश को राष्ट्रीय फलक पर ले जाने वाले दादाभाई नौरोजी, दिनशा वाचा आदि भारतीय ही तो थे। उद्देश्य था सन् 1857 वाली स्थिति देश में फिर न आने पाए।
ऐसी पुराने, गुणियों और क्रांतिकारी लोगों से बनी एक पार्टी हित के लिए दिए गए एक प्रस्ताव पर कांग्रेस हिल जाएगी, यह सोचकर ही देश के भविष्य पर खतरे का बदल मंडराता हुआ नजर आता है। वैसे ऐसा बार—बार इस पार्टी के साथ होता रहा है, लेकिन हर बार वह गिरकर संभाल जाती है और देश सेवा में नए आयाम स्थापित करती है। इस बार भी कुछ अच्छा ही होगा, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)