भारत में इलेक्टोरल रिफॉर्म्स के इंतजार में राजकोषीय ऋण
रीना एन सिंह, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ चुनाव लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से नियंत्रित राजनीति का सबसे खास हिस्सा है। कोई भी लोकतंत्र इस आस्था पर काम करता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे, इसमें हेरफेर और धाँधली नहीं होगी। वहीँ निरंतर चुनावों का आयोजन और लागत देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को बिगाड़ रहे हैं।
मार्च 2023 के अंत में केंद्र सरकार का कर्ज 155.6 ट्रिलियन या सकल घरेलू उत्पाद का 57.1% था, इसमें राज्य सरकारों ने कुल ऋण बोझ में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 28% और जोड़ दिया। भारत का सार्वजनिक ऋण-से-जीडीपी अनुपात 2005-06 में 81% से थोड़ा बढ़कर 2021-22 में 84% हो गया, और फिर 2022-23 में वापस 81% हो गया।
चुनावों का आयोजन करने के लिए बड़ी राशि निवेश की जाती है। इसमें विभिन्न धार्मिक दलों, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को धन और संसाधनों का इस्तेमाल करने की जरूरत होती है, निरंतर चुनाव की वजह से देश की आर्थिक स्थिति पर बोझ बनता है।
चुनावों की तैयारी के लिए अधिक समय और उम्मीदवारों का ध्यान केंद्रित करने के लिए जनता का भी ध्यान विचलित होता है। यह निरंतर चुनाव चक्र राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रिया को विघटित करता है और सरकार के प्रभावी काम को बाधित करता है।
निरंतर चुनावों के चलते, शासकीय स्थिरता की कमी होती है जो लंबे समय तक निरंतर नीतियों को लागू करने की क्षमता को प्रभावित कर रही है। जहाँ देश मे निरंतर अस्थिरता की स्थिति बनी रहती है, जिससे निवेशकों का भरोसा कम होता है और आर्थिक विकास पर भी असर पड़ता है। इन समस्याओं के बावजूद, चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और उसका महत्व भी है, लेकिन समय-समय पर इसे सुधारने की आवश्यकता है ताकि यह देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने से बचा सके।डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करके चुनावी प्रक्रिया को सुगम बनाने और लागत को कम करने में मदद मिल सकती है।निरंतर चुनावों की सीमा को स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि स्थिरता और समर्थन को बढ़ावा मिल सके।
अत्यधिक चुनावों को कम करने के लिए लंबे समय के बाद ही चुनाव करने की प्रणाली स्थापित की जा सकती है। चुनावी लागत को संभालने के लिए सार्वजनिक उद्यमों को भी सहायता प्रदान की जा सकती है। प्रत्येक चुनाव में भारी मात्रा में धन जुटाना पड़ता है। एक साथ चुनाव कराने पर राजनीतिक दलों का चुनावी खर्च पर्याप्त रूप से कम हो सकता है। इससे धन उगाही का दोहराव नहीं होगा।
इससे जनता और व्यापारिक समुदाय को चुनावी चंदे के बारंबार दबाव से भी मुक्ति मिलेगी। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 60,000 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसके अलावा, यदि चुनाव एक साथ आयोजित होते हैं तो निर्वाचन आयोग द्वारा किये जाने वाले खर्च को भी कम किया जा सकता है।
‘एक देश, एक चुनाव’ अवधारणा पर चुनाव आयोजित कराने हेतु आवश्यक बुनियादी ढाँचा स्थापित करने के लिये चुनाव आयोग को आरंभ में व्यापक धनराशि का निवेश करना होगा।इसके साथ ही, सभी चुनावों के लिये एक ही मतदाता सूची का उपयोग किया जा सकता है। इससे मतदाता सूची को अद्यतन करने में लगने वाले समय और धन की भारी बचत होगी।
इससे नागरिकों के लिये भी आसानी हो जाएगी क्योंकि उन्हें एक बार सूचीबद्ध हो जाने के बाद मतदाता सूची से अपना नाम गायब होने की चिंता से मुक्ति मिलेगी। इन कदमों का अभिवादन करते हुए, संवेदनशीलता और प्रायोजनशीलता के साथ चुनाव प्रक्रिया को सुधारा जा सकता है ताकि यह देश की अर्थव्यवस्था पर अधिक असर न डाले।राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण बार-बार होने वाला चुनाव भी है।