रहीम के बाद हकीम भी गए; भारतीय फुटबाल अब किसके भरोसे
राजेन्द्र सजवान
भारतीय फुटबाल इतिहास के महानतम कोच और भारत का गौरव बढ़ाने में अग्रणी रहे रहीम साहब के काबिल ओलंपियन बेटे एसएस हकीम का जाना न सिर्फ भारतीय फुटबाल के लिए बड़ा आघात है अपितु देश में हिन्दू मुस्लिम एकता और भाईचारे की सलामती की दुआ करने वाला महान इंसान भी हमारे बीच नहीं रहा। वह कुछ दिनों से हृदयाघात से पीड़ित थे और अंततः उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
फुटबाल के रहीम:
भारत की फुटबाल में यदि आज कुछ बचा है तो बड़ा श्रेय हकीम के वालिद रहीम साहब को जाता है। 1951 और 1962 के एशियाई खेलों में भारत को स्वर्णिम जीत दिलाने वाले कोच रहीम थे।
हम चार ओलंम्पिक इसलिए खेल पाए क्योंकि हमारे पास रहीम जैसा महान कोच था। पिता के जाने के बाद हकीम ने विरासत में मिले फुटबाल ज्ञान से भावी पीढ़ी को बहुत कुछ सिखाया लेकिन तब तक हालात बद से बदतर हो चुके थे।
हकीम का जाना बड़ी क्षति:
चूंकि फुटबाल ओलंपियन थे इसलिए भारतीय वायुसेना ने उन्हें क्लास वन अधिकारी के रूप में नियुक्त किया। सेवा निवृत्त होने केबाद भारतीय खेल प्राधिकरण में चीफ कोच का दायित्व निभाया, राष्ट्रीय कोच बने और देश के कई बड़े क्लबों के कोच रहे।
फीफा के क्लास वन रेफरी का दायित्व भी निभाया। लेकिन उन्हें अपने पिता जैसी सफलता इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि भारतीय फुटबाल में गंदी राजनीति गहराई तक घुसपैठ कर गई थी।
राष्ट्रीय टीम के कोच का दायित्व निभाने में उन्हें अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके पास फुटबॉल ज्ञान की कमी नहीं थी। हर कमजोरी का इलाज था लेकिन भारतीय फुटबाल के लुटेरों ने हकीम की दवा दारू की कद्र नहीं की। नतीजा सामने है। भारतीय फुटबाल की बीमारी का इलाज किसी भी हकीम के पास नहीं है।
हिन्दू मुस्लिम एकता :
हकीम न सिर्फ अपने पिता की तरह अव्वल दर्जे के कोच रहे, एक बेहतरीन खिलाड़ी और नेक इंसान भी थे। बातचीत के चलते वह अक्सर कहा करते थे कि पता नहीं क्यों भारत में हिन्दू और मुस्लिमों को एक साथ चैन से नहीं रहने दिया जाता? वह जितने नाराज फुटबाल फेडरेशन और साई से थे, उससे भी कहीं ज्यादा नाराज उन हिंदुओं और मुसलमानों से थे जो तोड़ने की बात करते थे।
सच तो यह है कि उनके ज्यादातर मित्र, हितैषी और प्रशंसक हिन्दू थे। हिन्दू भाइयों और शिष्यों को होली दीवाली पर शुभकामना भेजना कभी नहीं भूलते थे। दिल्ली और दिल्ली की फुटबाल उनका दूसरा घर रही।
हैदराबाद और कोलकत्ता की बजाय दिल्ली के नये पुराने खिलाड़ियों के साथ समय बिताना उन्हें ज्यादा पसंद था। खासकर, दिल्ली की फुटबाल से वर्षों से जुड़े एनके भाटिया और हेम चंद उनके परम मित्रों में थे।
मेरा सौभाग्य:
एसएस हकीम को सरकार द्वारा ध्यान चंद खेल अवार्ड से सम्मानित किया जाना उनकी सेवाओं का पुरस्कार था। सौभाग्यवश, उनके नाम का चयन करने वाली कमेटी में मैं भी शामिल था।
चार द्रोणाचार्यों, पुलेला गोपीचंद, स्वर्गीय एमके कौशिक, महा सिंह राव और वीरेंद्र पूनिया के समक्ष जब उनका नाम आया तो हम सभी ने एकमत से उनके नाम पर हामी भरी थी। वह सचमुच बड़े से बड़े सम्मान के हकदार थे।
‘रहीम’ के बाद ‘हकीम’ भी चले गए तो अब भारतीय फुटबाल का इलाज कौन करेगा? हिन्दू मुस्लिम को फुटबाल की डोर से कौन बांधे रखेगा?
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)