ओलंपिक खेलों के सहायक खेल हो सकते हैं स्वदेशी खेल
राजेंद्र सजवान
चूँकि सरकार आत्मनिर्भर भारत के लिए कटिबद्ध है और स्वदेशी को प्राथमिकता मानती है, यही कारण है कि भूले बिसरे विशुद्ध भारतीय खेलों को बढ़ावा देने के प्रयास भी ज़ोर पकड़ने लगे हैं। वर्ष 2020 के खेल पुरस्कार पाने वाले खिलाड़ियों और कोचों में मलखम्ब के कोच को द्रोणाचार्य सम्मान दिया जाना सीधा सीधा संकेत है कि सरकार अपने खेलों को फिर से पहचान दिलाना चाहती है, जिनके माध्यम से फिट इंडिया और हिट इंडिया का नारा भी लगाया जा रहा है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें दुनिया के साथ आगे बढ़ना है। स्वदेशी खेलों को बढ़ावा देने के साथ साथ ओलंपिक और एशियायाड में शामिल खेलों की तरफ भी बराबर ध्यान देने की ज़रूरत है। विशेषज्ञों की माने तो प्राचीन भारतीय या स्वदेशी खेल ओलंपिक खेलों के सहायक खेल के रूप में प्रोमोट किए जा सकते हैं।
इसमें दो राय नहीं कि रामायण और महाभारत काल में भारतीय खेलों की समृद्ध परंपरा चलन में थी। धनुर्विद्या, तलवारबाजी, घुड़सवारी, रथ दौड़, मल्लयुद्ध, कुश्ती, तैराकी, शतरंज, भालाफेंक, कबड्डी, खोखो, और बाद के सालों में नौका दौड़, पोलो, फुटबाल, गिल्ली डंडा, बैलगाड़ी दौड़, हॉकी आदि खेल ख़ासे प्रचलित और लोकप्रिय हुए। इनमें से बहुत से खेल आधुनिक ओलंपिक का हिस्सा बने। मूल चूल बदलाव और नये नियमों के साथ खेल स्पर्धाओं को आकर्षक बनाया गया। यह भी सच है कि इनमें से बहुत से खेलों का जन्म भारत में नहीं हुआ। बहुत से आक्रांता अपने साथ कई नये और आकर्षक खेल लेकर आए जिन पर हमने दावा ठोक दिया। लेकिन यह सच है कि रामायण और महाभारत काल के योद्धा ऐसे बहुत से खेलों में पारंगत थे, जिनमें आज के भारतीय खिलाड़ी विश्व स्तर पर नौसीखिया बनकर रह गए हैं।
हाल ही में फ़िजिकल एजुकेशन फाउंडेशन आफ इंडिया ने एक आन लाइन सम्मेलन का आयोजन कर परंपरागत खेलों को बढ़ावा देने, उनके प्रचार प्रसार और और खेलों की मुख्य धारा से जोड़ने का आह्वान किया। आयोजकों ने शारीरिक शिक्षा से जुड़े कई विद्वानों और जानकारों के अनुभवों के आधार पर यह समझाने का प्रयास किया कि फिट इंडिया के लिए हमें अपने स्वदेशी खेलों को ना सिर्फ़ बढ़ावा देना होगा अपितु उनमें महारथ हासिल करने वाले भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी कामयाबी हासिल कर सकते हैं।
यह सही है कि बाडी कांटेक्ट और दमखम वाले खेलों से जुड़े भारतीय खिलाड़ी यदि मलखंब, कुश्ती, कबड्डी, खोखो, तैराकी जैसे खेलों को ट्रेनिंग का हिस्सा बनाते हैं तो वे शारीरिक रूप से फिट होंगे और अपने खेल में पारंगत हो सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि क्रिकेट खिलाड़ी फुटबाल या बास्केटबाल खेल कर खुद को फिट रखते है। कई एथलीट तैराकी, फुटबाल जैसे खेल खेलते हैं तो पहलवानों को रस्सी चढ़ना, तैरना, फुटबाल खेलना रास आता है। इसी प्रकार अन्य खेलों के लिए भी हमारे स्वदेशी खेल सहायक खेल के रूप में कारगर साबित हो सकते हैं।
स्वदेशी खेलों की वकालत करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन खेलों को हम अपना बताते हैं उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जिसमें हमें महारत हासिल हो। तीरन्दाज़ी, तलवारबाजी, तैराकी और घुड़सवारी में में आज तक एक भी भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक पदक नहीं जीत पाया। हॉकी और फुटबाल में कभी बड़ा नाम था, जिसे हमने डुबो दिया। कबड्डी और खोखो की हालत भी किसी से छिपी नहीं है। राम, कृष्ण, अर्जुन, हनुमान, भीम, एकलव्य जैसे योद्धाओं की बराबरी करना तो दूर की बात उनके आस पास भी कोई नहीं पहुँच पाया।
कुल मिलाकर स्वदेशी खेलों की वापसी ओलम्पिक खेलों के लिए भी कारगर रहेगी। लेकिन जरूरत इस बात की है कि स्वदेशी खेलों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मान्यता दिलाई जाए। उनमें से कुछ खेलों को यदि ओलयम्पिक स्तर पर पहचान मिली तो ऐसे खेल देश का सम्मान भी बढ़ाएंगे।
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं. आप इनके लेख को www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)