इतिहास जानिए, समझिए और फिर आचरण कीजिए

निशिकांत ठाकुर
हाल के दिनों में जब से कोरोना महामारी का दूसरा चरण शुरू हुआ है, उसके बाद से मनोवैज्ञानिक रूप से हमारे और आपके ऊपर वह इस कदर हावी हो चला है कि हर समय हर कोई उसी की बात करता है। उसी के बारे में सोचता है। इसके कारण अवसाद से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। भारत सहित विश्व में जो जन धन की क्षति हुई है और हो रही है, इसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। फिर बार-बार वही राजनीतिक विश्लेषण , सामाजिक बुराइयों और उसे दूर करने के नए नए नुस्खें लिख लिखकर और इसी तरह के लेखों को पढ़कर ऐसा लगता है कि समाज डूब जाएगा। इसलिए इस बार कुछ लीक से हटकर अपने इतिहास पर विचार रखना चाह रहा हूं।
भारतीय समाज के इस बेहिसाब की गंदगी और दुविधा को कोई तभी दूर कर सकेगा, जब वह इतना शिक्षित हो जाएगा और चाहेगा कि सचमुच उसके समाज से गंदगी दूर हो। इस बीच कई लेख लिखे। कई विद्वानों के विचारों को पढ़ा, अच्छा लगा। देश में एक से एक विचारवान बुद्धिजीवी हैं, जो समाज को सही गाइडलाइन दे रहे हैं । उनके विचारों को यदि हम या हमारा समाज धरातल पर उतरकर अंगीकार करता है, तो हमारा विकास होगा। हमारे देश का विकास होगा। काश, हमारा देश सौ प्रतिशत शिक्षित होता जैसा कि हमारे पूर्ववर्ती विचारक कहते आए हैं, विशेष रूप से बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के जो विचार थे । उनका कहना था कि चाहे कुछ भी कर लें, जब तक समाज पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं होगा हम कुछ भी कर लें। समाज पिछड़ा ही रहेगा देश को पिछड़ेपन से दूर होने में लंबा समय लगेगा।
देश का विभाजन होकर आजाद हुआ उस समय भारतवर्ष की आबादी मात्र 38 करोड़ थी । आजादी के दो सालों बाद देश में एक चुनाव आयोग का गठन किया गया और पहले चुनाव आयुक्त बने सुकुमार सेन । उनका जन्म 1899 में हुआ था और उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज तथा लंदन यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी । उसके बाद 1921 में इंडियन सिविल सर्विसेज ज्वाइन कर ली और बतौर कई जिलों में उनकी नियुक्ति न्यायाधीश के रूप में होती रही । भारत सरकार के किसी अधिकारी के पास इतना कठिन और विशाल काम नहीं था । उस चुनाव में मतदाताओं की संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी , जिनकी उम्र 21 साल या उसे ऊपर थी तथा जिनमे 85 प्रतिशत न तो पढ़ सकते थे न लिख सकते थे । आखिर सन 1952 के शुरुआती महीने में चुनाव करना तय किया गया । कितना दुरूह और मुश्किल रहा होगा इसकी कल्पना मात्र से हीं अपने देश पर हर किसी को गर्व की अनुभूति होती होगी । आखिर स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हुआ ।
संविधान सभा में सबसे विवादास्पद विषय था भाषा । इस बात पर सबसे अधिक विवाद था की सदन में कौन सी भाषा बोली जाएगी , संविधान किस भाषा में लिखा जाएगा और किस भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाएगा। इस पर 10 दिसंबर 1946 का दिन ऐतिहासिक है ।
संयुक्त प्रांत से चुनकर आनेवाले आर. वी. धुलेकर (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित रघुनाथ विनायक धुलेकर का जन्म 1891 -1980, झांसी, शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय व इलाहाहाबाद विश्वविद्यालय) ने एक संशोधन विधेयक प्रस्ताव पेश किया । जब उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा में बोलना शुरू किया तो सभा के अध्यक्ष ने उन्हें याद दिलाया कि बहुत सारे सदस्य उस भाषा को नहीं समझते जिस भाषा में वह बोल रहे हैं। इस पर धूलेकर का जवाब था, कि जो लोग हिंदुस्तानी नहीं समझते हैं उन्हें इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है । जो लोग भारत का संविधान बनाने के लिए इस सदन में मौजूद हैं, लेकिन हिंदुस्तानी भाषा नही जानते वे इस सदन के सदस्य रहने के काबिल नही हैं अच्छा हो वह सदन से बाहर चले जाएं, सदन में हंगामा मच गया , लेकिन धुलेकर ने अपना वक्तव्य जारी रखा और कहा प्रस्ताव करता हूं कि प्रक्रिया समिति अपना नियम अंग्रजी में न बनाकर हिंदुस्तानी भाषा में बनाए। धुलेकर ने अपना वक्तव्य जारी रखते हुए कहा, मैं अपील करता हूं की हमलोगों को, जिसने आजादी की लड़ाई जीती है और इसके लिए संघर्ष करते रहे हैं , अपनी भाषा में सोचना और अभिव्यक्ति करनी चाहिए । कितने धुरंधर , कितने दृढ़ निश्चय वाले थे हमारे वह पूर्वज जिन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर करके बिना कुछ पाने की उम्मीद के लीक से उतरे देश को केवल आत्मबल से ही लीक पर लाने का प्रयास करते रहे। शायद उनके मन ने एक दिवास्वप्न देखा था की हमारा आजाद भारत ऐसा होगा वैसा होगा शायद स्वर्ग से भी सुंदर ।
यह भाषाई बात इसलिए उठी थी कि भारत अब आजाद होने जा रहा था , लेकिन वर्षो तक अंग्रेजी भाषा और क्षेत्रीय भाषाओं के बल पर उसका काम चलाता रहा , लेकिन अब जब देश आजाद होने जा रहा था, तो प्रश्न यह उठ रहा था कि किस भाषा में संविधान लिखी जाए और उत्तर और दक्षिण के और पूरब पश्चिम के राज्यों में सामंजस्य कैसे स्थापित हो ? उत्तर में गंगा के किनारे और उसके आसपास की भाषा अवधी , भोजपुरी, मैथिली, मारवाड़ी और भी कई अन्य भाषाओं की बोली समझ में आती थी । दूसरी बात यह की दक्षिण भारत के लोगों के लिए यह भाषाएं अपरिचित थी । पूर्वी और दक्षिण भारत के लोग असमी,बंगाली, उड़िया, तमिल और तेलुगू भाषा बोली जाती थी जिनके हरेक की अपनी लिपि थी और उनकी श्रेष्ठ कोटि की अपनी साहित्यिक परंपरा थी । इस मसले पर पुरुषोत्तम दास टंडन से खुलकर बहस हुई जो हिंदी को विदेशी प्रभावों से मुक्त करने के कट्टर हिमायती थे । टंडन अखिल भारतीय हिंदी साहित्य परिषद के उपाध्यक्ष थे, जिन्होंने मांग की थी की देवनागरी लिपि ही एक मात्र वह भाषा है, जिसके कारण हिंदी ही इस देश की एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है राजर्षी पुरुषोत्तम दास टंडन 13 वर्षों तक उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष रहे और उन्हें भारत रत्न से भी नवाजा गया ।
अंग्रजों ने जिस तरह से भारतवर्ष को सैकड़ों वर्षों तक चलाया वह उसका अपना गणित था। उसे भारत की धरती और यहां की सभ्यता और संस्कृति से कुछ भी लेना देना नहीं था । वह भारत को लूटने आए थे और लुटेरों ने अपने मन से जब तक चाहा उसे लूटा । उसे भारतीय संस्कृति, परंपरा से क्या लेना देना था । उसका यदि एक छोटा सा नमूना देखें तस्वीरें साफ हो जाएगी । कौंसिल की गुप्त बैठक शुरू हुई । प्रेसिडेंट की कुर्सी पर गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक बैठे थे । कई गुप्त विचार विमर्श के बाद गवर्नर जनरल कुछ देर खामोश रहकर कहा, हम एक गुप्त खजाना लंदन रवाना कर रहे हैं , जो हॉनरेबल कंपनी को भारत की भेट है । इतना कहकर सामने का परदा हटाया तो सामने लोहे के सात बक्शे नजर आए जिसके ढक्कन खुले हुए थे । अंडर सेक्रेटरी ने विवरण सुनाया तो अबकी आंखें आश्चर्य से फैल गई । तीस मन हीरे , छह करोड़ रुपए नकद , दो सौ मन सोना , आठ सौ मन चांदी के अतिरिक्त दिल्ली के मुगल शासक का जग विख्यात तख्ते- ताउस भी वहां रखा था जिसकी कीमत सात करोड़ रुपए थी । यह तो एक मात्र छोटा सा नमूना है भारत को लूटने का सोचिए जिसने खून खरावे के बल पर सैकड़ों वर्षों तक क्या क्या लूटा होगा ।
अब उसके भारत से वापस जाने की बारी थी। इसलिए किस भाव से वह वापस जा रहा होगा सोचिए । इस विषय पर क्रमशः गाहे बगाहे और आगे लिखूंगा । इतिहास के कोनों में इन बातों की जानकारी हमारे बहुत से युवाओं को शायद न हो इसलिए इतिहास के इस कोने को पढ़कर लगा की उन्हे भी इस तरह की जानकारी देने का प्रयास करूं जिन्होंने स्वयं अपने सामने आजादी की लड़ाई लड़ते अपने पूर्वजों को नहीं देखा ।आजादी हमे एक दिन में नहीं मिली उसके लिए वर्षों निःस्वार्थ भाव से संघर्ष किया गया और आज हमे आजाद भारत के नागरिक होने का गौरव दिलाया । हम आजादी के सभी सदस्यों को बार बार नमन करते हैं और विश्वास दिलाते हैं आपका आजाद भारत प्रगति के पथ पर सदैव आगे बढ़ता हुआ आपके सपनों को साकार करेगा ।
(इस लेख में कई इतिहासकारों से बातचीत और उनकी पुस्तकें तथा आचार्य चतुरसेन की किताब सोना और खून , भाग 2 से कुछ अंश साभार लिए गए हैं )।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।