भक्षण की प्रचलित राजनीति
निशिकांत ठाकुर
शेर को कहां लगता है कि वह अन्य दुर्बल जीव-जंतुओं के प्रति कितना कठोर है। वह तो उसका भक्षण करना अपना मौलिक अधिकार मानता है। यही हाल आजकल अपने देश में भी देखने को मिल रहा है। हम समझ ही नहीं पा रहे हैं कि देश की सवा अरब से ज्यादा की आबादी किस प्रकार घुट-घुटकर जीवन व्यतीत कर रही है और हमारे राजनेता हर दिन उन डरी हुई आबादी को बार-बार यह बताकर कि यह तो सरकार का निर्णय है, लागू हो कर रहेगा, उसे और खौफजदा कर रही है। अब किस पर भरोसा करेगी यह जनता? उसने तो अपना हाथ काटकर विश्वास में अपना मत देकर सरकार बनवा दिया। अब जब सरकार को उसके हित-लाभ की चिंता करनी चाहिए, वहीं उसे धोखा जैसी बात नजर आने लगी है। सरकार जो सोचती है, उससे जनता को लगता है कि हमारे हित के विरुद्ध कठोर निर्णय लिया जा रहा है और इसका दूरगामी परिणाम उसके हित में तो कतई नहीं होनेवाला है। यदि हम वोट देकर अपने हित करने वालों को चुनने की कोशिश करते हैं और वह चुनाव हार जाता है तो वह सत्ता लोभ का इतना भूखा होता है कि अपने हित का खयाल करके पाला बदल लेता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठने के लिए कुछ भी कदम उठा लेता है।
यदि यह कुछ देर के लिए यह मान लिए जाए कि राजनीति में दलबदल होता रहता है और उससे किसी पर कोई अंतर नहीं होता तो यह बात साफ नहीं हो जाती कि ऐसी राजनीति केवल आम भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाने के लिए की जाती है या फिर इसे एक व्यवसाय मानकर किसी भी तरह सत्ता की कुर्सी हासिल करके जनता के ऊपर शासन किया जाए। अभी हाल ही में मध्य प्रदेष के दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जो किया, उसने तो यही प्रमाणित किया कि कांग्रेस में बात बनी नहीं तो भारतीय जनता पार्टी का दामन थामकर सत्ता की कुर्सी पर बैठ जाओ। फिर जो होगा, देखा जाएगा। अब यह कितने शर्म की बात है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इसलिए पार्टी बदल लेता है कि उसे पार्टी में उपयुक्त कुर्सी, यानी तरजीह नहीं मिली। क्या उनके सलाहकार ने उन्हें नहीं बताया कि उन्हें तो लोकसभा चुनाव लड़ाया गया था, लेकिन जनता ने नकार दिया और चुनाव हार गए। अब फिर उसी पार्टी में जाकर शरण मांग कर कुर्सी पाने के लिए नतमस्तक हो गए। यह तो जनता को गुमराह करना हुआ। या यह कह सकते हैं कि भोली-भाली जनता को ठगा गया और वह नेता सत्ता की कुर्सी पर बैठ गए।
अब यदि इसी प्रकार में भारतीय जनता पार्टी की बात की जाए तो उसने तो कई राज्यों के नेताओं को, चाहे किसी भी तरीके से, अपने साथ मिलाकर सरकार को गिराया है। कर्नाटक हो, महाराष्ट्र हो… कई राज्यों में तो उसका षड्यंत्र सफल रहा, लेकिन कई राज्यों में उसे मुंह की खानी पड़ी है। अभी क्या हो रहा है… यही कि एक स्थिर सरकार को गिराने की जी-तोड़ साजिश रची जा रही है, लेकिन देखने की बात यह है कि वह सफल भी होती है या नहीं। केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के पार्टी फंड में अकूत पैसा पड़ा है, इसलिए उसका उपयोग विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए किया जाता है। मध्य प्रदेश प्रकरण में तो यही कहा जा रहा है कि विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए पैंतीस करोड़ का ऑफर दिया गया। सच-झूठ का पता तो किसी निष्पक्ष जांच एजेंसी द्वारा कराई जाने के बाद ही चलेगा, अन्यथा कही-सुनी में बात आई और चली गई वाली ही होगी। कहा यही जाएगा कि सब कोरा बकवास है और ऐसी अफवाह विपक्षी पार्टी के लोग उड़ाते ही रहते हैं। हमारी पार्टी कामदारों की है, नामदारों की नहीं। हम साफ-सुथरा प्रशासन देते हैं।
आज यह देश बहुत ही कठिन दौर से गुजर रहा है। केंद्रीय सत्तारूढ़ दल, जिसके ऊपर देश की एक-एक जनता की सुख-शांति, सुरक्षा-संरक्षा, समृद्धि की जिम्मेदारी है, उसमें या तो योजनाकारों की कमी है अथवा मार्केटिंग के इतने लोग बैठे हैं कि राजनेताओं को ग़लत सलाह देकर सरकार के लिए भविष्य की खाई खोद रहे हैं। सिंधिया का केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के साथ जाना अच्छा होगा या बुरा, यह तो भविष्य की राजनीति बताएगा, लेकिन अभी मध्य प्रदेश की एक चलती हुईं सरकार को अस्थिर कर देने की साजिश को ठीक तो कतई नहीं कहा जा सकता है। चूंकि अब बात जनता के हाथ से निकल गई है, इसलिए जो भी होना-करना होगा, वह केंद्रीय सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को हो करना है। राजनीति में यदि राजनीति न हो तो राजनीति का मज़ा ही कुछ नहीं होता, ऐसा राजनीतिज्ञ कहते हैं। उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं कि कोई आए कोई जाए, देश तो चलता ही रहेगा, दुनिया तो चलती ही रहेगा। शेर तो जंगल का राजा है, इसलिए उसे डर किस बात का! डर तो छोटे जीव-जंतुओं की धरोहर है जिसका भक्षण शेर का मौलिक अधिकार है।
(लेखक वरिष्ठ विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार है, चिरौरी न्यूज परिवार का इससे पूर्णतः सहमत होना आवश्यक नहीं है। )