राहुल गांधी ने बयां किया सिंधिया को खोने का दर्द!
कृष्णमोहन झा
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान के चतुर्थ कार्यकाल का प्रथम वर्ष आगामी 23 मार्च को पूर्ण होने जा रहा है परंतु राज्य में सत्ता परिवर्तन की पटकथा तो पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 10 मार्च को ही लिख दी थी जब कांग्रेस के साथ अपना 18 साल पुराना रिश्ता तोड़कर वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। उनके इस फैसले ने तत्कालीन कमलनाथ सरकार की चूलें हिला थीं।
सिंधिया के उस अप्रत्याशित कदम से कांग्रेस पार्टी के बड़े बड़े दिग्गज स्तब्ध रह गए थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ, जो अति आत्मविश्वास का शिकार होकर भाजपा को उनकी सरकार गिराने की चुनौती देने लगे थे , को सिंधिया के इस फैसले ने इस कड़वी हकीकत का अहसास करा दिया था कि अब कांग्रेस विधायक दल के सदस्यों के साथ उन्हें विपक्ष में बैठने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह भी संयोग ही था कि सिंधिया ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत कांग्रेस से ही की थी और लगभग 18 वर्षों तक संगठन में महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी का संपूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन किया। उनकी विशिष्ट योग्यता का उचित मूल्यांकन करते हुए केंद्र की पूर्ववर्ती कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में भी शामिल किया था। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में उन्हें पार्टी के प्रचार अभियान की बागडोर सौंपी गई थी।
2018 में पंद्रह वर्षों के बाद कांग्रेस को पुनः सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने में ज्योतिरादित्य सिंधिया जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया उसने उन्हें मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बना दिया था परंतु जब पार्टी हाई कमान ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद से नवाज दिया तब यह अनुमान लगाया जा रहा था कि कांग्रेस हाईकमान कमान उन्हें प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद की बागडोर उनके विलक्षण सांगठनिक कौशल का उपयोग प्रदेश में संगठन को मजबूत बनाने के लिए करना चाहता है परंतु तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने उन्हें हाशिए पर डालने की सोची-समझी नीति पर चलना शुरू कर दिया। बस यही वह समय था जब राजनीतिक पंडित यह मानने लगे कि सिंधिया की यह सोची समझी उपेक्षा कांग्रेस सरकार को बहुत महंगी पड़ेगी।
यह भी कम आश्चर्यजनक बात नहीं थी कि तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जैसे चतुर राजनीतिज्ञ भी इस स्थिति को भांपने में असफल रहे और आज से एक साल पूर्व दस मार्च को आखिरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर तत्कालीन कमलनाथ सरकार के पराभव की पटकथा लिख दी।
सिंधिया के उस फैसले के लिए कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने उन्हें जी भर कर कोसने में कोई कोताही नहीं बरती इन नेताओं में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी शामिल थे जिनसे सिंधिया की गहरी मित्रता सर्वविदित थी। उन्होंने सिंधिया के कांग्रेस पार्टी छोड़ने के फैसले को मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा से प्रेरित बताया था। आज जब भारतीय जनता पार्टी में ज्योतिरादित्य सिंधिया अपना एक साल पूरा कर चुके हैं तब एक बार राहुल गांधी ने अपना वही बयान पुनः दोहराया है। यह निःसंदेह आश्चर्य की बात है कि राहुल गांधी न तब यह समझ पाए और न अब समझ पा रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मन में मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा संजोकर कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ी थी। कांग्रेस पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल होते समय ही उन्होंने यह तय कर लिया था कि राज्य में सत्ता परिवर्तन की जो पटकथा वे लिखने जा रहे हैं उसमें खुद के लिए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का अध्याय वे नहीं जोड़ेंगे। राहुल गांधी यह कैसे भूल रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो राज्य में सत्ता परिवर्तन होने पर स्वयं ही शिवराजसिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद के सर्वथा उपयुक्त बताया था।दरअसल राज्य विधानसभा के पिछले चुनावों में कांग्रेस पार्टी जब सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर बसपा और निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार बनाने में सफल हो गई तो वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी।
सत्ता से 15 सालों का निर्वासन समाप्त होने की खुशी उससे संभाले नहीं संभल रही थी परन्तु सत्ता हासिल के लिए चुनाव प्रचार के दौरान उसने प्रदेश के मतदाताओं से जो लुभावने वादे किए थे उन वादों को पूरा करने के लिए आवश्यक इच्छा शक्ति के अभाव ने जल्दी ही तत्कालीन कमलनाथ सरकार से जनता का मोहभंग कर दिया और कुछ ही दिनों में प्रदेश की जनता इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश हो गई कि जिस सरकार का अधिकांश समय विधानसभा चुनावों में किए गए वादों को पूरा करने के बजाय अपने आपसी झगड़ों को निपटाने में ही जाया हो रहा है उसकी सत्ता से जितनी जल्दी विदाई संभव हो जाए उतना ही अच्छा है। इस कड़वी हकीकत का अहसास करने से कमलनाथ तो चूक गए परंतु चुनावों में कांग्रेस की विजय सुनिश्चित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोकप्रिय युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस स्थिति को जल्दी ही भांप लिया और उन्होंने अपने राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह न करते हुए तत्कालीन कमलनाथ सरकार को समय रहते सचेत भी कर दिया कि यदि विधानसभा चुनावों के दौरान जनता से किए गए वादों को जल्द ही पूरा नहीं किया गया तो वे सरकार पर दबाव बनाने के लिए अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर उतरने में भी कोई संकोच नहीं करेंगे।
पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अगर उस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया सिंधिया की चेतावनी को गंभीरता से लिया होता तो शायद मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन की अपरिहार्यता की स्थिति निर्मित होना नामुमकिन था परन्तु सत्ता के अहंकार में चूर कमलनाथ ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को सड़क पर उतरने की चुनौती देने का जो दुस्साहस किया वह उनके संपूर्ण राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित हुआ। कमलनाथ सरकार से अपेक्षा तो यह थी कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ मिलकर जनता की तकलीफों को दूर करने के उपायों पर गंभीर चिंतन करते परंतु उन्होंने तो अपनी आश्चर्यजनक टिप्पणियों से ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपमानित करने में भी कोई कसर नही छोड़ी। हमेशा ही जनता के हितों को व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से ऊपर मानने वाले प्रदेश के लोकप्रिय युवा नेता ने अंततः भरे मन से उस पार्टी से रिश्ता तोड़ना ही उचित समझा जिसमें वे बचपन से ही पले बढ़े थे ।
सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी को केवल अलविदा नहीं कहा बल्कि उन्होंने काफी सोच विचार कर यह फैसला किया कि वे अब उस पार्टी को मजबूत करने में अपनी पूरी ताकत लगाएंगे जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपार लोकप्रियता ने विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का गौरव प्रदान किया है इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने का फैसला कर सबको अचरज में डाल दिया। और उनके भाजपा में शामिल होते ही राज्य में सत्ता परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त हो गया। जनता भी इस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। कमलनाथ सरकार का पतन होते ही प्रदेश की जनता से ज्योतिरादित्य सिंधिया को बधाईयां मिलने लगीं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि अगर उन्होंने कांग्रेस को अलविदा कह कर अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल होने का साहसिक कदम नहीं उठाया होता तो मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन की कल्पना भी असंभव थी इसलिए मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन के लिए श्रेय का असली हकदार ज्योतिरादित्य सिंधिया को माना गया परंतु कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने का सिंधिया का फैसला मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा से प्रेरित नहीं था। अगर उनके मन में ऐसी कोई लालसा रही होती तो वे भाजपा में शामिल होने के लिए पहले ही यह शर्त रख सकते थे। सिंधिया ने जब भाजपा में शामिल होने का फैसला किया था तब उन्होंने कांग्रेस विस्तार से उन कारणों पर प्रकाश डाला था जिनके कारण उन्हें कांग्रेस से अपने 18 साल पुराने रिश्ते तोडने के लिए विवश होना पड़ा।
प्रदेश मे कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने के बाद उन्होंने सरकार को अनेकों बार सचेत किया कि चुनावों में प्रदेश के किसानों, युवाओं, महिलाओं सहित समाज के विभिन्न वर्गों से जो वादे किए गए थे उन पर यथाशीघ्र अमल किया जाना चाहिए ताकि सरकार में जनता का भरोसा न टूटे परंतु सिंधिया की नेक सलाह पर गंभीरता से विचार करना दूर, उन्हें हाशिए पर भेजने की कोशिशों से कमलनाथ सरकार ने संकोच नहीं किया। कई बार वे अपमान का घूंट पी कर भी इस लिए चुप रहे कि पंद्रह सालों के लंबे अंतराल के बाद सत्ता में लौटने में कांग्रेस की सफलता अल्पजीवी साबित न हो परंतु उनकी इस समझदारी को जब उनकी कमजोरी मान कर उनके अपमान का सिलसिला जारी रहा तो गत वर्ष 10 दस मार्च को अपने स्वर्गीय पिता माधवराव सिंधिया की जयंती के अवसर पर पार्टी को अलविदा कह दिया। आज उनकी जयंती के अवसर पर अनायास ही उनसे जुड़ी पुरानी यादें ताजा हो उठी हैं।
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के सामने अतीत में ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गई थी जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस का गठन करने का फैसला किया। उन्हें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद से भी वंचित किया गया जिसकी महंगी कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी।ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में शामिल हुए एक साल बीत चुका है।उस समय कांग्रेस के जिन 22 विधायकों ने उनके फैसले का समर्थन करते हुए भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी उनमें से अधिकांश समर्थक उपचुनावों में विजयी होकर दुबारा विधानसभा में पहुंच चुके हैं। उपचुनावों में उनकी विजय से यह साबित हो गया है कि भाजपा में शामिल होने का उनके फैसले को मतदाताओं का भी समर्थन हासिल था। भाजपा ने सिंधिया को राज्यसभा में भेजकर उनके अंदर मौजूद राजनीतिक प्रतिभा का जो सम्मान किया है उससे भी बड़ा सम्मान पाने के वे अधिकारी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार के लिए मंत्रियों के चयन हेतु जो मानदंड तय कर रखे हैं उन पर ज्योतिरादित्य सिंधिया पूरी तरह खरे उतरते हैं ।
इसलिए भविष्य में केंद्रीय मंत्रिमंडल का जब भी विस्तार होगा उसमें सिंधिया को पर्याप्त महत्व मिलने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी उन्हें अपनी सरकार में शामिल कर कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंप सकते हैं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि सिंधिया किसी भी महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी का कुशलतापूर्वक निर्वहन करने में सफल सिद्ध होंगे।आश्चर्य की बात है कि जिस कांग्रेस पार्टी को इन दिनों देश के गिने चुने राज्यों में ही सत्ता पर पकड़ बनाने रखने में पसीना छूट रहा है उसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अभी भी यह हास्यास्पद तर्क देने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि सिंधिया कांग्रेस में बने रह कर मुख्यमंत्री बन सकते थे। राहुल गांधी का राजनीतिक हित इसी में है कि जिन मुट्ठी भर प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी की सरकारें बची हैं वहां अपना संपूर्ण ध्यान केन्द्रित करें। दरअसल अब तक तो उन्हें इस हकीकत का अहसास हो जाना चाहिए था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे प्रतिभाशाली राजनेता को खोने की कांग्रेस को बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ी है।आज अगर वे यह तर्क दे रहे हैं कि सिंधिया को मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस में ही लौटना पड़ेगा तो यह सिंधिया के लिए परोक्ष आमंत्रण जैसा ही है।
अंत में, इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि सिंधिया भले ही अपने गुट के अधिकांश विधायकों को शिवराज सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय आवंटित करवाने में सफल हो गए हों परन्तु जब तक प्रधानमंत्री मोदी उन्हें अपनी सरकार में मंत्री पद से नहीं नवाजते तक उनका मिशन अधूरा ही माना जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)