गली कूचे के खेलों को रोशन करने वाले पत्रकार थे रोशन लाल सेठी
राजेंद्र सजवान
दिल्ली की खेल पत्रकारिता में पिछले दो साल से भी अधिक समय से ठहराव सा आ गया है। राजधानी के खिलाड़ी और खेल आयोजक इसलिए परेशान हैं, क्योंकि अब उनकी खबर लेने वाला कोई नहीं है। उनकी खोज खबर लेने वाला मसीहा 11 नवंबर 2018 को इस दुनिया से विदा क्या हुआ कि अब अंबेडकर स्टेडियम, फिरोज़शाह कोटला मैदान, गुरु हनुमान और चंदगी राम व्यायाम शाला की खबरें अख़बार की सुर्खियाँ नहीं बन पा रहीं। लेकिन पंकज ग्रुप और हरी चन्द मेमोरियल स्पोर्ट्स इवेंट्स ट्रस्ट ने पहले रोशन लाल सेठी प्राइज़ मनी टूर्नामेंट का आयोजन कर उस दिवंगत आत्मा को सच्ची श्रधांजलि दी है, जिसने अपना सारा जीवन खेलों की सेवा में लगाया। बेशक, आयोजक साधुवाद के पात्र हैं।
रोशन सेठी उस पीढ़ी के पत्रकार थे जब पत्रकारिता को बेहद आस्था, विश्वास और सम्मान की नज़र से देखा जाता था।
दो नवंबर 1937 में जन्मे इस पत्रकार ने लगभग साठ साल देश की पत्रकारिता को दिए। अनेक बड़े अख़बारों में संपादक रहे और अंततः 81 साल की उम्र में सांध्य टाइम्स के खेल पत्रकार के रूप में अंतिम साँस ली। हालाँकि जीवन के अंतिम 25 साल तक कैंसर से लड़ते रहे पर लिखना नहीं छोड़ा। अक्सर कहा करते थे, ‘ जिस दिन सांध्य टाइम्स में मेरी खबर ना छापे समझ लेना मैं भगवान को प्यारा हो गया हूँ।’ ठीक यही हुआ भी। लगातार बीमारी से लड़ते लड़ते वह बेहद कमजोर हो गए थे। साथियों और करीबीयों ने बार बार कहा कि अब काम करने की उम्र नहीं रही, घर पर आराम करें लेकिन वह पता नहीं किस मिट्टी के बने थे। आखिरी दिनों तक दिल्ली के खेल मैदानों में खिलाड़ियों के बीच रहे और स्थानीय खेल गतिविधियों को सम्मान जनक स्थान दिया।
लगभग महीने भर अस्पताल में दाखिल रहे लेकिन आखरी दो दिनों को छोड़ उनकी खबरें खिलाड़ियों और खेल आयोजकों का उत्साह बढाती रहीं। उन्होने जैसा कहा वैसा हुआ भी। खबर नहीं छपी तो खेल पेज के पाठक और उनके परम मित्र समझ गए कि अब कलम का सच्चा सिपाही इस दुनिया से कूच कर गया है। उनके जाने के बाद ना सिर्फ़ दिल्ली की खेल पत्रकारिता में सूनापन सा आ गया अपितु एक मृदुभाषी और पिता तुल्य शख्सियत की कमी भी खलती है। जो भी उनके पास जाता, बिना चाय पिलाए जाने नहीं देते थे।
बेशक, वह देश के श्रेष्ठ खेल पत्रकारों में थे लेकिन उनके जैसा जीवट शायद ही कोई और रहा हो। उनकी उम्र के अधिकांश पत्रकार या तो हथियार डाल चुके थे या भगवान को प्यारे हो गए थे। उनको भी बार बार झटके लगे। गंभीर बीमारी के शिकार हुए, गले और जीभ के आपरेशन हुए। लेकिन उन्होने बार बार मौत को गच्चा दिया और दूसरे ही दिन कोटला मैदान, अंबेडकर स्टेडियम और पहलवानों के बीच नज़र आए।
किसी भी खेल और खिलाड़ी को उन्होने कभी नाराज़ नहीं किया और जैसे तैसे उसे स्थान दिया। सच्चाई यह है कि वह खेल पत्रकारिता के गुरु हनुमान थे। गुरुजी भी लगभग 90 साल की उम्र तक सक्रीय रहे, पहलवानों की फ़ौजें तैयार करते रहे। दोनों महान हस्तियों में एक बड़ी समानता यह थी कि उनके बीच हमेशा प्यार और दोस्ती रही। सतपाल, करतार, चंदगी राम, सुदेश, प्रेमनाथ, राज सिंह, महासिंह राव, सुशील, योगेश्वर जैसे दिग्गज हमेशा उनके प्रिय बने रहे। अजितपाल, हरबिंदर और अशोक ध्यांचंद जैसे महान हॉकी खिलाड़ियों के भी वह बेहद करीब थे। हजारों खिलाड़ी उनके पांव चुने के लिए बेताब रहते थे।
वह खेल पत्रकारिता के पितामह इसलिए बन पाए क्योंकि खुद बेहतरीन एथलीट थे। क्रॉस कंट्री के चैम्पियन रहे और 1956 में पायनीयर स्पोर्ट्स क्लब का गठन भी किया| इंडियन एक्सप्रेस और मदर लैंड जैसे अख़बारों के संपादक थे| नवभारत टाइम्स में कुश्ती के श्रेष्ठ लेखक -पत्रकार सुशील जैन के साथ खेल पेज को सजाया सँवारा और फिर हमेशा के लिए खेल पत्रकारिता से जुड़ गए। सांध्य टाइम्स ने उन्हें दिल्ली और देश के उपेक्षित खिलाड़ियों और खेलों की सेवा करने का अवसर प्रदान किया और उन्होंने अपना काम बखूबी अंजाम दिया। राजधानी के किसी भी स्टेडियम में कभी भी प्रकट हो जाते थे। कुश्ती, कबड्डी, खो खो, हॉकी, जूडो, बास्केटबाल, फुटबाल, एथलेटिक के जबरदस्त जानकार थे तो क्रिकेट में गली कूचे की खबरों को उन्होने प्रमुखता से छापा। यही कारण है कि डीडीसीए के अधिकारी उन्हें विशेष सम्मान देते थे।
बेशक, उनके जाने के बाद से दिल्ली की खेल पत्रकारिता की आवाज़ चली गई है। वह खेलों के लिए जिये और खेलते खेलते चले गए। उनके जाने के बाद दिल्ली के गली कूचों के खेल जैसे अनाथ हो गए हैं।
वाह अदभुत