संत माँ सुभद्रा जिन्होंने 14500 फीट की ऊंचाई पर 9 साल से ज्यादा जीवन तपस्या की
चंद्रशेखर पाण्डेय
समुद्र तल से लगभग 14000 फुट से ज्यादा की ऊंचाई पर हिमाच्छादित गंगोत्री परिक्षेत्र में तपोवन, सुंदरवन नंदनवन एवं कीर्तिबामक जाने का अवसर सन 1978 से आज तक मिल रहा है। इसी क्षेत्र में मुझे थेलू चोटी लगभग (19,800 फुट) क्लाइंब करने का अवसर प्रथम बार 1980 में प्राप्त हुआ तथा इसके बाद वर्ष दर वर्ष आसपास की अनेक चोटियों का नेतृत्व और आयोजन करता रहा। सन 80 के दशक में माँ सुभद्रा जी को गंगोत्री में सर्व प्रथम देखा। मैं उन्हे गंगोत्री से पहले से तो नहीं जानता पर गंगोत्री आने के बाद आज तक मैने उनका भौतिक जीवन हमेशा कष्टमय देखा लेकिन उन्होंने कभी उन कष्टों का वृतांत नहीं किया और न ही उनको कष्टमय समझा। मैने भी किसी से चर्चा नहीं किया। जब भी मां से बात की तो वे मौन होकर सुनती रही और यही बोलती रही कि सब उन (भगवन) पर छोड़ रखा है।
उमा भारती जी और बालकृष्ण जी जब गंगोरी आए थे तो मैने उनके सामने मां से लाल बाबा आश्रम की चर्चा की पर माँ चुप रही और ये एक महान संत होने का एक महान गुण है जो दूसरों के अवगुणों को न सुनते और न चर्चा करते हैं। आश्रमों मे उनको जो महसूस हुआ उसका वर्णन उन्होंने कभी भी किसी से नहीं किया किन्तु वे इतना समझ गई कि उनके जानने वालो मे एक ऐसा भी है जो उनके गंगोत्री से अब तक के भौतिक जीवन के सुख और दुख के बारे में जानता है इसके लिए मै माँ और परम पिता परमेश्वर का हृदय से आभारी हूं कि एक महान विरले संत की गंगोत्री यात्रा का मुझे भी सान्ध्य प्राप्त हुआ।
मैंने हमेशा महसूस किया कि माँ शांत, सरल, करुणां, दया और ममता स्वरुप है। जो भी तपोवन माँ जी की तपस्थली के पास पहुंचता माँ उसे चाय, पानी और भोजन देती। तपोवन पर जब मौसम अच्छा होता है तो चारों और मनोहारी दृश्य दिखाई देते हैं परन्तु जब मौसम बिगड़ता है तब भयंकर कंपकपाती ठण्ड आपको अपने आगोश मे गला देने वाली होती है और माँ तो केवल एक कम्बल नीचे बिछाती थी और एक कम्बल स्लीपिंग बैग के उप्पर डालकर सोती थी। कैसी विचित्र साधना थी ये समझ से परे है। जब बर्फीले पहाड़ टूटते उनकी गर्जना और बर्फीले तूफ़ान कि सांय सांय और हाय हाय करने कि आवाज उस निर्जन स्थान को एक भयावह डरावनी और अकेले में किसी का मनोस्थिति बिगड़कर प्राणों का अंत हो सकता है।
उस भयंकर तांडव लीला वाली स्थिति को देखकर आँसू के सिवाय और कुछ नहीं होता। ये दृश्य तो मैन कई बार गर्मी के दिनों में उन क्षेत्रों में अनुभव किया तब ठंड के मौसम में अकेले निर्जन स्थान पर क्या दिखता और महसूस होता होगा ये तो मेरी कल्पना के परे है। माँ जी को मैंने सदैव पूरे बाजू का गर्म स्वेटर, एक पुराने से ऊनी कम्बल का झंगोला, सिर पे एक गर्म मंकी टोपी और नीचे ऊनी पजामा पहने देखा और कभी-कभी कमर में एक पीला कपड़ा झगोला के उपर बांधा होता था।
मै अपने अभी तक लगभग 42 वर्षों के अनुभव से लिख रहा हूँ कि लगातार 9 वर्षों तक उस विपरीत परिस्थिति में साधना बिना पर्वतारोहण साधनों के सम्भव नहीं और मेरा आज तक मानना है कि वहां लगातार 9 वर्षों तक केवल और केवल महयोगिनियाँ ही रह सकती है। धन्य है भारत भूमि जहाँ ऐसे महान संत तप करते हैं ।
(लेखक साहसिक खेलों के आयोजक एवं पर्वतारोही हैं.)