लॉकडाउन का भयावह सच और बिहार की बदहाली
निशिकांत ठाकुर
वर्तमान में पूरे देश में विकट स्थिति पैदा हो गई है। देश लॉकडाउन है, यानी आवाजाही ही नहीं, हर गतिविधि बंद। ऐसे में घर में कैद होने के कारण मन भावुक हो रहा है। इसलिए जब अपनों की याद सताती है, तो दिल उद्वेलित भी होने लगता है। कोई भी शिकायत सुननी हो या देखनी हो तो सबकी नजर अपने आप बिहार की ओर उठ जाती है। कोई-न-कोई कारण तो है जिसकी वजह से हर छोटी-बड़ी बात के लिए सबकी नजर घूमकर बिहार पर ही अटक जाती है। अच्छाई की बात करें तो बड़ी-बड़ी हस्तियों ने या तो यहीं जन्म लिया है अथवा ज्ञान प्राप्त किया है। चाहे भगवान गौतम बुद्ध हों, भगवान महावीर हों, गुरु गोविंद सिंह जी महाराज हों, बिरसा मुंडा हों… सारे किसी-न-किसी रूप में उसी बिहार से जुड़े हैं। लेकिन, उन महापुरुषों से आज के समाज को क्या लेना-देना! आज जिनके पास हमारे संविधान ने अकूत शक्ति दी है, वही यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि अपने राज्य-समाज के लिए क्या करें। कितनी उर्वरता है बिहार की धरती में, लेकिन विडंबना यह कि आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी वहां के लोग दूसरे राज्यों में अपनी जीविका तलाश रहे हैं। और, यही कारण है कि इस महामारी काल में हजारों मील दूर भूखे -प्यासे पैदल चलकर, अपनी गोद में दुधमुंहे बच्चे और माथे पर अपनी गृहस्थी उठाकर अनवरत चले जा रहे हैं। इनमें कुछ तो अपने घर वापस आने की इच्छा पूरा कर पाते हैं और कुछ अपनी जीवन-यात्रा रास्ते में ही प्राण-त्याग कर समाप्त कर दे रहे हैं। ऐसा अन्य राज्यों के श्रमिकों के लिए सुनने में तो नहीं आया है, लेकिन बिहार के कुछ प्रवासी लोगों के लिए यह जरूर कहा गया है।
यह बिल्कुल सही है कि ऐसी स्थिति सदैव नहीं रहेगी, लेकिन अचानक जो गंभीर समस्या सामने आई, और जिसमें लोगों के जीवन को बचाना सर्वोच्च प्राथमिकता देना अनिवार्य हो गया था, उसमें लॉकडाउन अत्यावश्यक था। लेकिन, भूल कहां, कैसे और किससे हो गई कि हम उन लोगों के लिए ऐसा इंतजाम, ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके, जिससे हालात आज जैसे नजर आ रहे हैं, वैसे नहीं बन पाते। जो जहां थे, वहीं रह गए। रोज़ कमा कर अपने परिवार का गुजारा करने वालों ने कभी सोचा तक नहीं था कि एक दिन ऐसा भी ही सकता है। घर में बंद रहने के कारण लोगों के सब्र के बांध टूट गया और उन्होंने भूखे-प्यासे घुटकर मरने से बेहतर अपनों के पास जाकर प्राण त्यागना उचित समझा। यह तो अभी प्रारंभिक दिन है, पता नहीं कब तक यह स्थिति रहे, क्योंकि कोरोना रूपी इस वैश्विक महामारी के इलाज, यानी वैक्सीन खोजने में अभी तक विश्व के वैज्ञानिक शोध में ही लगे हैं। चीन, जिसे इस महामारी का जन्मदाता कहा जाता है, उसके भी वैज्ञानिक इसके निरोधक टीका खोजने में लगा है। यहां तक कि अपने देश भारत के वैज्ञानिक भी टीके की खोज में जुटे हैं, लेकिन जिस दिन इस कोरोना का इलाज खोज लिया जाएगा, वह विश्व के लिए ऐतिहासिक दिन जरूर होगा।
बिहार का नाम आते ही दुख इसलिए होता है कि वहां के लोग आज भी देश के कोने-कोने में जाकर अपनी जीविका तलाश रहे हैं, क्योंकि अपने राज्य में उनके लिए रोज़गार का कोई उचित साधन उपलब्ध नहीं है। पहले जो भी उद्योग लगाए जा रहे थे, अमूमन सभी बंद हो गए हैं। हर किसी के पास इतनी जमीन नहीं है कि वह उसमें खेती-बाड़ी करके अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। ऐसे हालात में उन्हें दूसरे राज्यों में जाकर रोजगार ढूंढ़ना पड़ता है। भारतीय संविधान के अनुसार, यह कोई अपराध भी नहीं है कि अपने देश का नागरिक दूसरे राज्यों में जाकर रोज़गार नहीं कर सकता, रोजी-रोटी नहीं कमा सकता। पर यहां यह सवाल जरूर पैदा होता है कि आखिर देश के दूसरे राज्य इतने विकसित कैसे हो गए कि वह दूसरे राज्यों से आए लोगों को अपने यहां रोज़गार दे सकें! इस मामले में बिहार क्यों पिछड़ गया? वह देश के अन्य विकसित राज्यां की सूची में क्यों नहीं शामिल हो सका है? क्या बिहार 1947 के बाद आजाद हुआ था? शायद इस समस्या के मूल कारणों को नहीं ढूंढा गया, क्योंकि राज्य की सर्वोच्च कुर्सी पर जो बैठे थे, वह दूर की सोच नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने सोचा ही नहीं कि इस राज्य का भविष्य आगे क्या होगा। जो उद्योगपतियों के लिए किसी भी राज्य में सर्वाधिक आवश्यक होता है कि उन्हें संपर्क मार्ग सही मिले, बिजली-पानी की आपूर्ति ठीक हो, और सबसे मुख्य बात उनकी व उनके उद्योग के सुरक्षा की गारंटी हो, यह नहीं मिल पाया। इस वजह से अभी तक इस राज्य के लोग रोजी-रोटी के लिए अन्य राज्यों में पलायन करते रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह लॉकडाउन भी है। जब हजारों की संख्या में लोग दिल्ली सहित अन्य राज्यों से पैदल ही अपने माथे पर गृहस्थी का बोझ लिए अपने बच्चे को गोद में उठाकर अपनों के पास पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की यात्रा के लिए बेचैन हो गए। कितना भयावह दृश्य था वह। क्या इसे बिहार सरकार ने नहीं देखा होगा? क्या उसके मंत्रियों ने नहीं देखा होगा? और यदि उन्होंने नहीं देखा तो इस भयावह स्थिति को पूरे विश्व ने देखा है और बिहार की जनता ने भी देखा और इस असह्य पीड़ा को सहा है। निश्चित रूप से वह इसका मज़ा ऐसे राजनीतिज्ञां को जरूर सिखाएंगे, जो उन्हें अनदेखा कर उनके जीवन से अब तक खिलवाड़ कर रहे हैं। काश, चाणक्य और चंद्रगुप्त जैसा कोई उद्धारक फिर अवतरित हो जाएं।
(लेखक वरिष्ठ विश्लेषक हैं। शुक्लपक्ष के प्रधान संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)