पर्यावरण के प्रति समझें अपनी जिम्मेदारी, सरसंघचालक की सुनिए
डॉक्टर धनंजय गिरि
21वीं सदी ने विकास के कई आयाम गढे। यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हां, इसके साथ यह भी सच है कि विकास की राह पर हमने कई समस्याओं को भी अपने साथ लेते गए। इसी में से एक है पर्यावरण प्रदूषण। हमें अपनी पारिस्थितिकि को बचाने के लिए पर्यावरण संरक्षण की ओर कदम बढाना होगा। जो लोग संघ के संस्कार में पल्लवित और पोषित हैं, उन्हें अच्छी तरह पता है कि हम स्वयंसेवक सदा ही पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हैं। साथ ही समाज को भी इसमें साथ लेकर काम करते रहते हैं। समय-समय पर सरसंघचालक जी इसके लिए निर्देश देते रहते हैं।
देश में पर्यावरण संरक्षण को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरी तरह सजग है। सजगता का प्रमाण है कि पिछले वर्ष संघ ने अपनी कार्य योजना में अलग से पर्यावरण विभाग शुरू किया और प्रमुखों की नियुक्ति। वहीं सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत भी कई बार संघ की बैठकों में पर्यावरण को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए लोगों से जल संरक्षण, पौधारोपण पर जोर देते हुए पॉलीथिन नहीं अपनाने का आग्रह कर चुके हैं। इस बार पर्यावरण दिवस पर संघ ने लोगों से अपने घरों को 5 स्टार हरित घर बनाने का संकल्प लेने का आह्वान किया है। देश के प्रत्येक जिले में 100 पर्यावरण प्रहरी भी बनाए जाएंगे। अखिल भारतीय पर्यावरण प्रमुख गोपाल आर्या ने कहा कि जिस तरह से पर्यावरण की समस्या उत्पन्न हो रही है उसको लेकर हमें सचेत होना होगा। अपने घरों से पर्यावरण संरक्षण की शुरुआत करनी होगी।
इसी संदर्भ में आप लोगों से एक बात साझा करना चाहता हूं। आपके और हमारे आराध्यक्ष श्रीराम हैं। आप लोगों ने भी रामचरितमानस पढा होगा। इसमें भी पर्यावरण की चिंता की गई है। रामचरित मानस में पर्यावरण के संदर्भ में वर्णन करते हुए कहा है कि उस समय पर्यावरण प्रदूषण कोई समस्या नहीं थी। पृथ्वी के अधिकांश भू-भाग पर वन-क्षेत्र होता था। शिक्षा के केन्द्र आबादी से दूर ऋषि-मुनियों के वनों में स्थित आश्रम हुआ करते थे। श्रीरामचन्द्र जी ने भी अपने भाईयों सहित महर्षि विश्वामित्र जी से उनके आश्रम में ही शिक्षा ग्रहण की थी। समाज में ऋषि-मुनियों का बड़ा सम्मान था। प्रतापी राजा-महाराजा भी इन ऋषि-मुनियों के सम्मुख नतमस्तक होने में अपना सौभाग्य समझते थे। यही करण है कि जब श्रीराम को बनवास हुआ तो उन्हें सर्वाधिक प्रसन्नता इसी बात की हुई थी कि उन्हें वन-क्षेत्र में ऋषि-मुनियों के सत्संग का लाभ प्राप्त होगा-
मुनिगन मिलन विशेष वन, सबहिं भांति हित मोर।
सभी में सामंजस्य पर आधारित समवेती विकास सम्भव हो सके। रामचरित मानस में हम पाते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक अवयवों को मात्र उपभोग की वस्तु नहीं माना गया है बल्कि सभी जीवों तथा वनस्पतियों से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रकृति के अवयवों का उपभोग निषिद्व न होकर आवश्यकतानुसार कृतज्ञतापूर्वक उपभोग की संस्कृति प्रतिपादित की गयी है जैसे कि वृक्ष से फल तोड़कर खाना तो उचित है लेकिन वृक्ष को काटना अपराध है-
रीझि-खीझी गुरूदेव सिष सखा सुसाहित साधु।
तोरि खाहु फल होई भलु तरु काटे अपराधू।।
रामराज्य धरती पर अनायास स्थापित नहीं किया जा सकता है इसके लिए प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण की संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है जैसा कि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में वर्णित किया है कि श्रीरामचन्द्र जी के विवाहोपरान्त बारात लौटकर अयोध्या आती है तो अयोध्या नगरी में विविध पौधों का रोपण किया जाता है-
सफल पूगफल कदलि रसाला।
रोपे बकुल कदम्ब तमाला।।
पौधा-रोपण की संस्कृति को विकसित करने के लिए श्रीराम ने अपने वन-प्रवास के दिनों में सीता जी व लक्ष्मण जी के साथ विस्तृत पौधारोपण की ओर सकेंत करते हुए कहा कि-
तुलसी तरुवर विविध सुहाय।
कहुँ कहुँ सिएँ, कहुं लखन लगाये।।
शुभ अवसर पर पौधा-रोपण की संस्कृति से आज के सबसे भयावह संकट-पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति संभव है। इसीलिए रामराज्य में प्रकृति के उपहार स्वतः प्राप्त थे। प्रकृति का सीमित विदोहन ही मानव-जीवन के सुखमय भविष्य की गारंटी है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तु का उपयोग हमें प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ किये बिना करना चाहिए। ऐसी सामाजिक संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है जिसका वर्णन तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है।
रामायण तथा रामचरितमानस में ‘संजीवनी बूटी’ का प्रसंग द्योतक है कि प्रकृति में उपलब्ध दुर्लभ बूटी-संजीवनी से मृत प्रायः शरीर भी जीवित हो सकता है आवश्यकता केवल उन औषधीय जड़ी-बूटि़यों के विषय में ज्ञान की है। भारत में आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली प्राकृतिक जड़ी-बूटि़यों के औषधीय गुणों पर ही आधारित है परन्तु पाश्चात्य ऐलोपेथी चिकित्सा प्रणाली के प्रचार प्रसार ने इस आयुर्वेदीय चिकित्सा प्रणाली को न केवल अत्यधिक हानि पहुँचाई वरन् इसको अनुपयोगी सिद्ध करने में भी कोई कोर कसर नहीं रखी है। स्वतन्त्र भारत में रामराज्य की परिकल्पना करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘यंग इण्डिया’ मे लिखा था अंग्रेजों ने निश्चय ही चिकित्सा व्यवसाय का उपयोग हमें दासता में बांध रखने के लिए सफलतापूर्वक किया है। पाश्चात्य चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करना हमारी दासता बढ़ाना है। यह प्रणाली बहुत खर्चीली है इसे स्वयं डाक्टर भी जानते है। इसमें रोग परीक्षा के लिए रक्त-परीक्षा,मल-परीक्षा,कफ-परीक्षा आदि कितनी ही प्रकार की परीक्षाएं चलती है,जिन पर काफी खर्च पड़ जाता है। डाक्टरों की फीसें बहुत मंहगी होती है। इसका विकास यूरोपीय देशों में हुआ है, उन्हीं देशों के जलवायु में पली हुई जनता के रहन-सहन,आहार-विहार को दृष्टि में रखकर ही यह प्रणाली बनाई गयी है। परिणामस्वरूप ये औषधियाँ भारतीय जनता की प्रकृति,जलवायु-सम्बधी दशाओं के बिल्कुल अनुपयुक्त सिद्ध हुई है।
हिन्दू संस्कृति में हरिभजन को अर्थात भक्तिभाव को औषधी से भी अधिक लाभकारी मानने की संस्कृति रही है इस सांस्कृतिक पक्ष को तुलसीदास जी ने काक भुषुण्डिजी के माध्यम से कहा है कि-
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।’
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।
इसी संदर्भ मे तुलसीदास जी गरुढ़ के माध्यम से कहते हैं कि हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नही है,संत,वृक्ष,नदी,पर्वत और पृथ्वी – इस सब की क्रियाएँ पराए हित के लिए ही होती है अर्थात् पूर्ण समर्पण और भक्ति भाव किसी चमत्कारी औषधी से कहीं अधिक फलदायी हो सकता है या लाभन्वित कर सकता है।
‘पूरन काम राम अनुरागी।
तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत विटप सरिता गिरि धरनी।
पर हित हेतु सबन्ह के करनी।।’
प्रतीकात्मक रूप में श्रीरामचन्द्र जी की उपस्थिति प्रकृति को सम्पन्न बनाती है। इस तथ्य को सांकेतिक रूप से तुलसीदास जी अरण्यकांड में कहते है।
‘जब ते राम कीन्ह तहँ बासा।
सुखी भए मुनि बीती त्रासा।
गिरि वन नदी ताल छबि छाए।
दिन दिन प्रीति अति होहि सुहाय।।’
तुलसीदास जी ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि श्रीराम जी की उपस्थिति से पर्यावरणीय चेतना अत्याधिक सम्पन्न होती है साथ ही उनके प्रति भक्तिभाव भी जनसाधारण के कष्टों को हरण करता है, अर्थात भक्ति-ज्ञान और विज्ञान से भी श्रेष्ठ है।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वीतीय सरंसंघचालक गुरुजी पर पीएचडी करने वाले संघ विचारक हैं। लेखक के विचारों से चिरौरी न्यूज़ का सहमत होना अनिवार्य नहीं है.)