कहाँ खड़ा है, क्यों मरा पड़ा है, हमारा ओलंपिक आंदोलन
राजेंद्र सजवान
दुनिया में दूसरे नंबर की जनसंख्या वाला देश जब ओलंपिक पदक तालिका में कहीं नजर नहीं आता या कभी कभार ही पदक जीत पाता है तो आम भारतीय की मनः स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है।
जब हमारे किसी छोटे से प्रांत या शहर जितनी आबादी वाले देश ओलंपिक पदक लूट ले जाते हैं तो हर भारतीय यह जरूर सोचता होगा कि आखिर हम ऐसा क्यों नहीं कर पाते? हम और हमारे खिलाड़ी कहाँ कमजोर पड़ जाते हैं? क्यों हम आज तक एक मात्र व्यक्तिगत ओलंपिक स्वर्ण ही जीत पाए हैं? यदि थोड़े से शब्दों में जवाब दिया जाए तो यही कहा सकता है कि हमने ओलंपिक खेलों और ओलंपिक आंदोलन को आज तक नहीं समझ पाए हैं।
यह सही है कि हम एक गरीब देश हैं और करोड़ों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती। ऐसे में मां बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने या खेल मैदान में उतारने की बजाय दिहाड़ी मजदूरी में लगा देते हैं और कई प्रतिभावान संभावित खिलाड़ी प्रोत्साहन की कमी के चलते बचपन में ही गुम हो जाते हैं। जो थोड़े बहुत स्कूल की दहलीज तक पहुंचते हैं, उन्हें खेलने के लिए माहौल नहीं मिल पाता।
चूंकि देश के राष्ट्रीय स्कूली खेलों का कारोबार करने वाली संस्था अपना काम ईमानदारी से नहीं कर पा रही तो फिर चैंपियन खिलाड़ी कहां से निकलेंगे। स्कूल स्तर पर उम्र की धोखा धड़ी आम बात है। बड़ी उम्र के खिलाड़ी अपने माँ बाप, स्कूल गेम्स फेडरेशन और प्रशासकों की शह पा कर असल प्रतिभाओं को कुचलते आ रहे हैं। यही हाल कालेज स्तर और सीनियर लेबल पर भी चल रहा है। फिर भला हम ओलंपिक आंदोलन में क्या योगदान दे सकते हैं? कैसे हमारा देश चैंपियन खिलाड़ी तैयार कर सकता है?
जहां तक सरकार की भूमिका की बात है तो ध्यान चंद युग और तत्पश्चात मिल्खा सिंह जैसे खिलाड़ियों का दौर मुश्किल था। खेलों पर खर्च करने के लिए कुछ खास नहीं था। फिरभी हमने आज़ादी से पहले ही हॉकी में तीन ओलंपिक स्वर्ण जीत लिए थे। यह सिलसिला आज़ादी मिलने के बाद भी बना रहा हमने हॉकी में पांच और स्वर्ण जीते।
फुटबाल में हम दो बार एशियायी खेलों के विजेता बने। लेकिन सालों साल केडी जाधव के कुश्ती में जीते कांस्य पदक का बखान करने के अलावा हमारे पास कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक में जाते रहे और खाली हाथ, अपमान के साथ वापस आते रहे। सरकारें बस एक ही नारा देती रहीं कि ओलंपिक में भले ही पदक न मिले, भाग लेना ज्यादा महत्व रखता है। यही ओलंपिक खेलों का सार और संदेश भी बताया गया।
अफसोस कि बात यह है कि सालों साल भारतीय ओलंपिक संघ और देश के तमाम खेल संघ देश के खिलाड़ियों और देशवासियों को गुमराह करते रहे। बड़े बड़े ओलंपिक दल जाते रहे और बिना पदक के वापस लौटते रहे। अंततः लिएंडर पेस और कर्णम मल्लेश्वरी के पदकों ने भारतीय खेलों में एक नई सोच को जन्म दिया। तब जाकर भारतीय खेलों के कर्णधारों की नींद टूटी, उन्हें पता चला कि ओलंपिक पदक तालिका में स्थान पाने के मायने क्या होते हैं।
बाद के सालों में निशानेबाजी, कुश्ती, बैडमिंटन, मुक्केबाजी में जीते पदकों ने भारत में ओलंपिक आंदोलन के बीजारोपण जैसा अहसास कराया। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत में ओलंपिक आंदोलन की जड़ें अभी जगह नहीं पकड़ पाई हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय खेल संघ गलत हाथों में खेल रहे हैं।
वरना क्या कारण है कि ओलंपिक खेलों की शुरुआत के सौ साल बीत जाने के बाद भी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक व्यक्तिगत स्वर्ण के लिए तरसता रहा? अंततः अभिनव बिंद्रा ने कर दिखाया। आज हमारे पास गर्व करने के लिए एक सोने का तमगा तो है, जिसके लिए बिंद्रा और उनके परिवार का शुक्रिया!
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)