मेजर ध्यानचंद को क्यों प्रिय थे शंकर लछमन

(29 अप्रैल महान ओलिम्पिक हॉकी खिलाडी शंकर लछ्मण की पुण्य तिथि पर विशेष)

अशोक ध्यानचंद

भारतीय हॉकी ने न जाने कितने सितारे दुनिया को दिये, जिनकी रोशनी की जगमगाहट से आज भी सारा आसमान रोशन होता है।जैसे खुले हुये आसमान में सारे सितारे चमकते है और बीच मे अपनी रोशनी से इन सितारों की उपस्थिति का एहसास और उनका परिचय चांद कराता है, ठीक वैसे ही दुनिया के हॉकी के आसमान पर अपनी खेल की रोशनी से अपने भारतीय हॉकी सितारों का परिचय मेजर ध्यानचंद कराते चले आ रहे हैं ।

इन सितारों की लंबी फेहरिस्त है और उन्ही हॉकी सितारों की फेहरिस्त में से एक नायाब सितारे एवं हीरे का नाम है शंकर लछमण।जिनका जन्म एक साधारण परिवार में 7 जुलाई 1933 को मध्यप्रदेश के महू नगर में हुआ। शंकर लछमण शुरू से ही फुटबॉल के बेहतरीन खिलाड़ी रहे और उनके दोनों पैर साथ साथ फुटबॉल पर एक सा नियंत्रण रखते थे।

महू नगर सेना का केंद्र रहा जहाँ अच्छे खिलाड़ी को सेना में भर्ती कर लिया जाता था । शंकर लछमण के खेल को देखकर उन्हें भी सेना में भर्ती कर लिया गया इस तरह शंकर लछमण ने 14 वर्ष की आयु में bandsman के रूप में सेना की मराठा लाइट इन्फैंट्री रेजिमेंट में 15 अगस्त 1947 को join कर लिया ।

संयोग देखिये जिस दिन भारत आज़ाद हुआ उसी दिन 15 अगस्त 1947 को शंकर लछमण ने सेना की पोशाक में पहली बार स्वत्रंत भारत मे अपनी सेवा के पहले दिन जन गण मन राष्ट्र गान की धुन अपने बैंड से बजायी होगी और फिर बैंड ने तान छेड़ी होगी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा जिसके लिये भारत के हर हॉकी खिलाड़ी ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने का प्रयास किया और शंकर लछमण भी इसी के लिए खेले और जिये। सेना में शंकर लछमण गोलकीपर के रूप में अपनी सेवायें देने लगे।

शंकर लछमण को सेना में मात्र 32 रुपये की मासिक पगार मिलती थी जिसमे से वे 12 रुपये परिवार को अनिवार्य रूप से भेजते थे क्योंकि परिवार की आर्थिक हालत अत्यंत नाजुक थी ।ऐसी परिस्थितियों में परिवार का सहयोग शंकर लछमण की जिम्मेदारी बन गयी थी। इस गुरबत और मुफ़लसी के वक्त में भी शंकर लछमण अपने खेल को निखारते रहे और पहली बार सन 1955 में इंटरनेशनल हॉकी फेस्टिवल पोलैंड में शंकर लछमण को देश का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला।

शंकर लछमण ने सन 1956 मे भारतीय ओलिंपिक हाकी टीम के सदस्य के रूप में मेलबोर्न ओलिम्पिक में पहली बार ओलिम्पिक खेलों में हिस्सा लिया।भारत ने पाँच मैच खेले और पांचो मैच जीते भारत ने कुल 38 गोल विरोधी टीमो पर किये और एक भी गोल उसके खिलाफ नही हुआ यही शंकर लछमण की खेल कौशल का परिचय है जो उनके उत्कृष्ट खेल को रेखांकित करता हैं।भारत ने अपने दुनिया के महानतम हॉकी खिलाड़ी जादूगर ध्यांचन्द की ओलिम्पिक स्वर्णिम यात्रा को जारी रखते हुये लगातार छठवां स्वर्ण पदक जीतकर भारत का गौरव बढ़ाया।

1960 रोम ओलिम्पिक में शंकर लछमण ने भारत का एक बार फिर प्रतिधिनित्व किया और इन ओलिम्पिक खेलों में पहली बार भारत को फाइनल मैच में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के सामने 1-0 की पराजय को देखना पड़ा और रोम ओलिम्पिक में भारत को रजत पदक से संतोष करना पड़ा किंतु ऐसा लगता है ध्यांनचन्द के भारतीय हॉकी सितारों को यह पराजय मंजूर नही थी चार वर्ष बाद 1964 टोक्यो ओलिम्पिक खेलो में भारत ने अपनी पराजय का बदला लेते हुये पाकिस्तान को फाइनल मैच में 1 के मुकाबले 0 गोल से पराजित करते हुये स्वर्ण पदक अर्जित कर अपनी खोई प्रतिष्ठा को वापिस स्थापित कर दिया।

इस स्वर्णिम जीत में गोल कीपर शंकर लछमण के खेल की तारीफ सारी दुनिया ने की क्योकि आखिरी मिनटों में पाकिस्तान को एक पेनल्टी कार्नर मिल गया था जिसे उसके पेनाल्टी कार्नर विशेषज्ञ मुनीर दार ले रहे थे जिनकी दनदनाती हिट को शंकर लछमण ने डाइव मारते हुए अपने सीने से रोका लिया था उनके साथी खिलाडी ओलम्पियन हरविंदर सिंह इस गोल के बचाव पर कहते है।

शंकर लछमण ने जैसे ही सीने से मुनीर दार की हिट को गोल मे जाने से रोका हम सभी खिलाड़ियों ने उन्हें सीने से लगा लिया था कि क्योंकि हम समझ गए थे कि भारत की विजय को अब कोई नही रोक सकता है औऱ उनके इसी बेहतरीन गोल रक्षण के कारण शंकर लछमण को हॉकी के जानकार रॉक ऑफ जिब्राल्टर की उपाधि से सम्मानित करते है।

1964 की इस विजय को याद करते हुये भारत के बेहतरीन आक्रमण पांक्ति के खिलाडी हॉकी विश्व विजेता औऱ ओलम्पियन अशोक कुमार कहते है कि यदि मैं आज ओलम्पियन कहलाने का हक़दार बन सका हूं तो उसका पूरा श्रेय भारत की 1964 की टोक्यो ओलिम्पिक हॉकी टीम को जाता है।

जिसकी कमेंट्री सुनकर मेरे भी मन मे इन खिलाड़ियों की भांति ओलमपियन बनने का सपना जागा और आगे चलकर मेरा वह सपना पूरा भी हुआ ।वे आगे कहते हैं कि 1964 भारतीय हॉकी टीम के खिलाडी किंतने महान रहे होंगे की जिनके नाम की कमेंटरी सुनने मात्र से मैं ओलम्पियन बनने की प्रेरणा पा सका।बाद में 1975 विश्व कप जीतने के पश्चात महू स्थित शंकर लछमण के निवास पर अशोक कुमार को उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का सौभाग्य भी मिला।

आशीर्वाद की इस भारतीय संस्कृति का उल्लेख करते हुये ओलम्पियन गुरुबख्श सिंह अपनी पुस्तक My Golden Days में लिखते है कि 1968 मेक्सिको ओलिम्पिक भारतीय हॉकी टीम का पटियाला में कैम्प लगा हुआ था और दादा ध्यानचन्द N I S पटियाला में उस समय मुख्य हॉकी प्रशिक्षक के पद पर कार्यरत थे।

शाम के ट्रेनिंग सेशन में वे भी मैदान पर आकर खड़े हो गए सामान्य बातचीत में किसी ने कह दिया कि दादा आपकी तो अब उम्र हो गयी है गेंद तो अब गोल में नही मारते बनेगी दादा ध्यानचन्द ने मुस्कराते हुये कहा टॉप डी पर 10 गेंद जमा दी जाए फिर उन्होंने कौन गोलकीपर हैं जो मेरी चुनौती स्वीकार करता है मैं गोल में 10 हाफ बॉली गोल में मारूंगा जिसमे हिम्मत हो आगे आये।

शंकर लछमण ने उनकी इस चुनौती को स्वीकार किया और तैयार होकर गोल पर गोल बचाने के लिये खड़े हो गए दादा ध्यानचन्द ने एकएक गेंद की हाफ बॉली बनायी और दस की दस गेंद हाफ वाली से शंकर लछ्मण के कभी दाएं नेट में कभी बांए नेट में डाल दी शंकर लछमण हतप्रभ देखते रह गए उन्होंने अपने ग्लब्ज उतारे और जाकर दादा ध्यांचन्द का पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया ।

ये उस समय के दो महान हॉकी खिलाड़ियो का आपस मे एक दूसरे के प्रति सममान औऱ स्नेह का अनुपम उदाहरण है जो मैदानों पर शायद अब देखने मे कम ही मिल पाता है।संयोग देखिये भारतीय हॉकी में भारत की जनता ने तीन खिलाड़ियों को ही स्नेह और सममान से दादा कहकर संबोधित किया है दादा ध्यानचन्द, दादा किशन लाल और दादा शंकर लछमण।

शंकर लछमण को याद करते हुये महान ओलिम्पियन कालड़ियास कहते है कि मैं हमेशा यह सोचा करता था कि यदि विरोधी टीम के खिलाड़ी ने मुझे हाफ बैक की मेरी पोजीशन पर चकमा दे दिया तो पीछे गोल बचाने के लिये शंकर लछमण है और ये सोचकर मैं आत्मविश्वास से भर जाता ।

सोचिये शंकर लछमण की उपस्थिति मात्र से दूसरे खिलाड़ियो का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर होता था जो कालड़ियास बता रहे है तो फिर क्या कारण की भारत ओलिम्पिक स्वर्ण पदक नही जीतता और ओलिम्पिक चेम्पियन नही बनता।शंकर लछमण की गोलकीपर के रूप में उपस्थिति ही भारत के ओलिम्पिक एशियन गेम्स में पदक जीतने की गारंटी हो गई थीं।ऐसे महान हॉकी खिलाडी ने भारत के तीन ओलिम्पिक ,तीन एशियन गेम्स में भारत के गोल पर अपनी स्वर्णिम बेहतरीन सेवायें दी जिसके लिए 1964 में खेलों के सर्वोच्च सममान अर्जुन पुरस्कार से और फिर 1966 में पदम श्री से भारत सरकार ने उन्हें सम्मानित किया किन्तु जिन पैरों की फूर्ति औऱ दमखम पर सारी दुनिया शंकर लछमण पर नाज करती थी उन्ही पैरों ने शंकर लछमण को जीवन के अंतिम समय में धोखा दे दिया जो पैर सिर्फ और सिर्फ देश की रक्षा के लिए गतिमान होते थे विरोधियों के सैकड़ों आक्रमण को विफल करते थे उन्ही पैरों को इस देश की सरकारें।

,हॉकी को चलाने वाले गैंगरीन से नही बचा सके और भारत मे हमेशा बेहतर स्वास्थ सेवायें ने दम तोड़ा है जिसकी वजह से न जाने कितने होनहार प्रतिभाओं को नागरिकों को देश ने असमय ही खोया हैं। यदि शंकर लछमण को समय रहते बेहतर स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध हो जाती तो भारत के इस महान हॉकी खिलाडी को हो सकता था कि शायद बचाया जा सकता किन्तु नियति ने जीवन के अंतिम समय मे वही कहानी लिख और दोहरा दी जो उसने 3 दिसम्बर 1979 को दादा ध्यानचन्द की अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नईदिल्ली के जनरल वार्ड में कैंसर से लड़ते लड़ते हॉकी के जादूगर ध्यान चंद की लिखी थी ।

वही कहानी ग़रीबी मुफ़लसी में जीवन का संघर्ष करते हुये दादा शंकर लछमण की 29 अप्रैल 2006 को नियती ने लिख दी जब इस महान हॉकी खिलाडी ने अपने जीवन की अंतिम सांस ली और दुनियां को ,हम सबको अलविदा कह दिया। हम सब आज इस महान हॉकी खिलाड़ी को उनकी पुण्य तिथी पर याद करते हुये उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते है और उनकी दी गयी सेवाओं के लिये यह देश सदैव उनका ऋणी रहेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *