क्यों हमेशा जीतने वाला ही लिखता है इतिहास

निशिकांत ठाकुर

इतिहास तो जीतने वालों का लिखा जाता है, हारने वाला तो केवल चिल्लाता है – यह एक सामान्य अवधारणा है, जो भारतीय जनमानस सहित विश्व के कई सभ्य देशों के लोगों के मन में रहता है। भारतीय संस्कृति में भी हमें वीर भोग्या वसुंधरा जैसे वाक्य पढने को मिले हैं। जिसने जीत हासिल की, समय उसी को पहले याद रखेगा । सच तो यह है कि जीतने वालों में कोई ना कोई विशेष गुण होता है। उसमें सामर्थ होता है, तभी तो वह जीत गया। अब आप कमी निकालने के लिए, उस जीत की समीक्षा करने के लिए स्वतंत्र हैं, करते रहिए। नीर-क्षीर विवेचन के लिए भी आप आजाद हैं। अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता तो जनमानस को है ही। यदि मैं आपसे पूछूं कि वर्तमान में समाज में कितने लोगों के पास वह दम-खम है कि वे अपना तर्क सफगोई से रख सकें ? कभी इस पर विचार किया है ? मुझे पूरी उम्मीद है कि नहीं किया होगा। हमारी और आप में से अधिसंख्या लोगों की स्थिति यह है कि अपने पक्ष में सही प्रचार भी नहीं कर सकते हैं। जबकि हमें यह पता है कि आखिर किस कारण से हारे हैं। फिर भी दूसरों पर आरोप लगाते हैं। इसे मैं तो आत्मप्रवंचना कहता हूं। हम पहले अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत नहीं समझते हैं। यह बात जब वैयक्तिक स्तर पर है, तो सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति को लेकर क्या कहें ? ताजा मामला राजस्थान का हम सबने देखा और समझा है।

राजस्थान ही क्यों, समय-समय पर विपक्ष द्वारा कई प्रकार के आरोप लगाए जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि भाजपा के पास 29 में से केवल 10 राज्यों में बहुमत है और पूरे देश के कुल विधायकों की संख्या 4139 में से 1516 विधायक ही भाजपा के हैं? तो क्या हुआ। केंद्र में तो भाजपा की बहुमत वाली सरकार है। देश की जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता। अधिसंख्य भक्त तो अभी भी जाप करने पर आमादा है। जब जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता है, तो विपक्ष इतना बेचैन क्यों है ? असल में, आज उसके पास वह अधिकार नहीं है, जो वर्षों तक उसके पास था। कोई भी और कुछ भी इस धरती पर स्थायी नहीं है। पृथ्वी पर तो परिवर्तन ही शाश्वत नियम है। सच तो यह है कि राजनीति एक घूमनेवाला चक्र है, जिसके कभी घूमने से जनता का लाभ होता है और कभी आगे घूम जाने पर जनता त्रस्त हो जाती है। कुछ भी हो जनता पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। जो भी फर्क पड़ता है, वह विपक्ष पर ही पड़ता है। जब विपक्ष कमजोर पड़ता है, तो आतंक बढ़ता है और जब जनता कमजोर और निरीह हो जाती है, तो गृह युद्ध होता है। आपसी मार काट होती है। दंगे फसाद होते हैं। जनता अशांत हो जाती है। सामाजिक और राजनीतिक विशेषज्ञ इस बात को कई बार कह चुके हैं कि अशांत चित का नागरिक कभी भी देश का भला नहीं कर सकता। तो अब क्या किया जाए ? आइए, अब इस पर विचार कर लें ।

सत्तारूढ़ को डर होता है कि सत्ता उसके हाथ से न खिसक जाए। इस खींचतान में जनता पिसती है। अभी सत्तारूढ़ और विपक्ष में जो हो रहा है, वह यही तो है। हमारी इज्जत उतर गई, इसलिए हम सरकार गिरा देंगे। दरअसल, ऐसे नेताओं को कहना तो यह चाहिए कि हमें बगल की चमचमाती कुर्सी बैठने को दी गई है, मैं यहां लाइन में क्यों लगूं ? अभी पिछले दिनों यही तो हुआ। पहले झीलों की नगरी भोपाल और उसके बाद गुलाबी नगरी राजस्थाान में। मध्यप्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार ने महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया को तवज्जो नहीं दिया, तो उन्होंने उनकी सरकर को ही पलट दिया और केंद्रीय सत्तारूढ़ दल भाजपा का दामन थामकर उनकी सरकार बनवा दी। फिर शर्त के अनुसार श्रीमंत राज्यसभा सदस्य बना दिए गए। वह लोकसभा में अपनी सीट जीत नहीं पाए थे। एक राज्यसभा की कुर्सी के लिए सत्ता पलट देना, इससे आम जनता को क्या फर्क पड़ता है? अभी दो दर्जन भर सीटों पर वहां उपचुनाव की सरगर्मी तेज हो गई हैं। लेकिन, जनता तो जैसी थी वैसी ही है। फर्क नेताओं को पड़ा जो एक कुर्सी पर बैठकर सत्तारूढ़ हो गए और एक सब कुछ गवाकर विपक्षी हो गए । अब यही हाल राजस्थान का है, वहां भी तथाकथित रूप से सचिन पायलट का अपनी पार्टी कांग्रेस में अपमान किया गया। उनकी उपेक्षा की गई, इसलिए उन्होंने बगावत कर सरकार को अस्थिर करके मीडिया में अपनी सहानभूति बटोरते रहे। जयपुर से गुरुग्राम होते हुए दिल्ली तक सियासी बिसात बिछे थे। चूंकि राजस्थान के मुख्यमंत्री एक पुराने और सुलझे हुए नेता है। जयपुर से दिल्ली तक उन्हें जादूगर कहा गया और माना गया है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत स्वयं को भी जादूगर कहते हैं। संगठन का लंबा अनुभव होने के कारण वे मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की तरह ढुलमुल नहीं हैं। इसलिए स्थिति को संभालकर अपनी कांग्रेस की सरकार को बचा लिया। सरकार पर संकट तो अब भी है, लेकिन देखना यह है कि बकरे की मां कब तक खैर मनाती है ? कांग्रेस के ये दोनों नेता युवा हैं। उत्साही हैं। पढ़े लिखे हैं – पर इतना उत्साही होना भी ठीक नहीं होता कि कोई अपने मूल स्वरूप को ही भूल जाए। राजनीति में यह पाठ प्रारंभ में ही पढाया जाता है कि कोई भी व्यक्ति संगठन से बडा नहीं होता है। हां, समय और देशकाल के सापेक्ष कुछ लोगों की नजर में कुछेक नेताओं को संगठन का पर्याय मानने की परंपरा भी रही है। अब श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट को यह तो विचारना होगा कि जिस कांग्रेस ने उन्हें इस बुलंदी और पहुंचाया, आज वहीं इतनी बुरी कैसे हो सकती है ? अब इन सारी बातों का ठीकरा कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी के सिर फोड़ा जाएगा। नेहरू और गांधी परिवार की कमियों का पिटारा खोला जा जाएगा , लेकिन किसी में यह कहने कि हिम्मत नहीं होगी कि देश की ऐसी अस्थिर राजनीति क्यों हो रही है? कौन है तो यह खेल करवा रहा है ? क्या आपको पता नहीं है ? मेरा जो अनुमान है कि इस सच को देश का हर प्रबुद्ध नागरिक समझता है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद गांधी-नेहरू परिवार से अलग के नेताओं ने देश को चलाया । साधारण जमीन से जुड़े,छोटे कद के सुलझे हुए नेता लाल बहादुर शास्त्री भी कांग्रेस के ही प्रतिनिधि थे- प्रधानमंत्री बने । स्वर्गीय पी वी नरसिम्हा राव भी प्रधनमंत्री बने। इनका कार्यकाल सराहनीय रहा। फ्रैंक मॉरीस ने जवाहर लाल बायोग्राफी के पृष्ठ 152 पर लिखा है कि महत्मा गांधी ने 1929 में लाहौर में नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने से पहले ,कांग्रेस से उनका परिचय करते हुए कहा कि वह निःसंदेह एक चरमपंथी है, जो अपने वक्त से आगे की सोचते हैं। लेकिन वह इतने विनम्र और व्यवहारिक हैं कि रफ्तार को इतना तेज नहीं करते कि चीजें टूट जाए। वह स्फटिक की तरह शुद्ध है। उसकी सत्यनिष्ठा संदेश से परे है। वह एक ऐसा योद्धा है, जो भय निंदा से परे है। राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है। (पीयूष बबेले की पुस्तक – नेहरू मिथक और सत्य – से साभार)।

कांग्रेस के उसी सूत्रधार को अपशब्द कहकर अपनी मार्केटिंग की जाएगी । इससे जनता का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। हानि तो उनकी तब होगी, जब जनता की समझ में यह बात आ जाएगी कि राष्ट्र किसके हाथों में सुरक्षित है । यदि राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार भी गिरा दी जाती है, तो निश्चित रूप से यह मानिए कि देश का अहित होगा और भारत में एक दलीय पार्टी की सरकार बन कर रह जाएगी । इसका क्या परिणाम होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा । हम आप तो इस भारत भूमि के निरीह प्राणी मात्र हैं, इसलिए प्रार्थना करिए कि हमारा देश आंतरिक रूप से मजबूत हो और जिस गति से हम आगे बढ रहे थे। उससे तेज गति से आगे बढ़े । पहले हम हर व्यक्ति को अपने देश में रोजगार दे रहे थे, अब विदेशों में भी हम अपने देशवासियों के लिए रोजगार तलाशेंगे। अब तक तो हम अपने ही देश में” प्रवासी” थे। अब, जब सच में हम विदेश जाकर रोजगार करेगे तो “प्रवासी “शब्द का सही उपयोग हो पाएगा और फिर जीतने वाले का इतिहास लिखा जाएगा ।

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

 

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