खेल पत्रकारिता का सबसे बुरा दौर
राजेंद्र सजवान
‘विश्व खेल पत्रकार दिवस’ के अवसर पर चिरौरी.कॉम (chirauri.com) की तरफ से दुनिया भर के और ख़ासकर अपने भारतीय खेल पत्रकार बंधुओं को हार्दिक शुभकामना। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस दिन कीशुरुआत 1924 के पेरिस ग्रीष्मकालीन ओलंपिक से हुई थी। इस बीच खेल पत्रकारिता ने कई उतार चढ़ाव देखे और आज वहाँ आ खड़ी हुई है, जहाँ से आगे की राह बेहद कठिन नज़र आती है|
कोविड 19 ने दिखाया आईना:
कोरोना काल में दुनिया के सभी बड़े छोटे और अमीर ग़रीब देशों ने तमाम उतार चढ़ाव देखे। बड़े बड़े धनाढ्य फकीर बन गए और ग़रीब और ग़रीब हुआ। लेकिन खेल पत्रकारों के साथ जो कुछ हुआ उसे देख कर तो यही कहा जा सकता है कि आने वाले सालों में खेल पत्रकारों के लिए रोज़ी रोटी और सम्मान कमाना आसान नहीं होगा। बड़े छोटे मीडिया हाउस चरमरा गए हैं| यूं तो बड़े पदों पर आसीन लोगों की नौकरियाँ भी गईं लेकिन सबसे बड़ी मार पड़ी बेचारे ग़रीब खेल पत्रकारों पर, जिनके मालिकों ने खेल पेज तक बंद कर डाले। तर्क दिया गया कि खेल आयोजन ठप्प पड़े हैं। नतीजन, कई खेल पत्रकारों की नौकरी गई, कुछ को आधी या उससे भी कम तनख़्वाह पर काम करने के लिए विवश किया गया| यह हाल राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों का है। छोटे, साप्ताहिक और पाक्षिक पत्रों ने तो खेल पेज के साथ खेल पत्रकारों का ख़ाता भी बंद कर दिया।
कड़ुवा सच:
कोई माने या ना माने लेकिन यह सत्य है कि खेल पत्रकारों को आज भी वह दर्जा नहीं मिल पाया है जिसके वे हकदार बनते हैं।उन्हें मीडिया हाउस और उनके संपादक मंडल हेय दृष्टि से देखते हैं।कारण कई हैं। आम तौर पर यह मान लिया जाता है कि जो कुछ नहीं बन सकता खेल पत्रकार बन जाता है| ऐसा इसलए है क्योंकि भारतीय खेलों की स्थिति बेहद दयनीय है। जब 135 करोड़ की आबादी वाला देश ओलंपिक में बमुश्किल पदक जीत पाता है तो खेल पत्रकारों को ताने सुनने को मिलते हैं। चूँकि खिलाड़ी बेहद फिसड्डी हैं इसलिए खेल पत्रकारों के बारे में भी राय बना ली जाती है।
एसजेएफआई और डीएसजेए की लाचारगी:
खेल पत्रकारों की बदहाली पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के सवालों ने विश्व खेल दिवस पर खेल पत्रकारों के संगठनों पर सवाल खड़े किए हैं। पहले है, श्री सुरेश कौशिक, जोकि जनसता के खेल संपादक रहे और जिनके साथ काम करने वाली टीम में श्री मनोज चतुर्वेदी और बृजेन्द्र पांडे जैसे विख्यात खेल पत्रकार शामिल थे। उनके मुखिया प्रभाष जोशी की यूँ तो हर विषय पर पकड़ रही लेकिन खेलों पर उन्होने जब भी लिखा, खूब वाह वाह लूटी| श्री कौशिक ने जानना चाहा है कि कोरोना काल में रोज़गार खोने वाले पत्रकारों के सहयतार्थ भारतीय खेल पत्रकार संघ(एसजेएफआई) और दिल्ली खेल पत्रकार एसो.(डीएसजेए) क्या कुछ कर सकते हैं! दूसरे हैं, वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ला, जोकि अन्य विषयों के साथ साथ खेलों पर भी गहरे लेखन के लिए जाने जाते हैं। विवेक जानना चाहते हैं कि कोई खेल पत्रकार संपादक क्यों नहीं बन पाता? विवेक जी के सवाल का जवाब हम सभी खेल पत्रकार अपनी गिरेबान में झाँक कर दे सकते हैं।
जहाँ तक कौशिक जी का सवाल है तो उसका जवाब यह है कि दोनों खेल पत्रकार संगठनों का उदेश्य सालाना जेके बोस क्रिकेट टूर्नामेंट खेलनाभर है। खेल पत्रकारों के बुरे वक्त में सांत्वना दे सकते हैं लेकिन किसी प्रकार की आर्थिक मदद की उम्मीद ना करें।
दो फाड़ खेल:
ओलंपिक खेल दुनिया का सबसे बड़ा खेल मेला है और इस भव्य आयोजन की कवरेज भी भव्यता लिए होती हैं। अन्य अग्रणी खेल राष्ट्रों की तरह भारतीय अख़बार भी ओलंपिक को प्रमुखता के साथ छापते आ रहे हैं। छोटी बड़ी खेल एजेंसियां, समाचार पत्र- पत्रिकाएँ ओलंपिक खेलों को जन जन तक पहुँचाते हैं| लेकिन पिछले कुछ सालों में गैर ओलंपिक खेल क्रिकेट के बढ़ते प्रभाव, इलेवट्रानिक मीडिया के दखल और खेल आयोजनों के विस्तार के चलते भारत में खेल पत्रकारिता दो भागों में बँट गई है| एक विशुद्ध खेल पत्रकारिता और दूसरी क्रिकेट पत्रकारिता। हो सकता है आप में से बहुत से लोग सहमत ना हों लेकिन यह सच है कि टीवी चैनलों ने क्रिकेट आज तक और शेष खेलों के बीच एक लंबी लकीर खींच डाली है। भले ही टीवी चैनल अवसरवादी पत्रकारिता कर रहे हैं और खेलों को प्रोत्साहन से उनका कोई लेना देना नहीं रहा लेकिन समाचार पत्रों ने ने जिस पत्रकारिता को पिछले बीस तीस सालों में अपनाया है उसे देखकर यह नहीं लगता कि हम खेल पत्रकारिता दिवस को मनाने के हकदार हैं|
क्रिकेट कवर करने वाला बड़ा पत्रकार:
इसमें दो राय नहीं कि क्रिकेट भारत का सबसे लोकप्रिय खेल है, जिसने हॉकी और फुटबाल जैसे खेलों को भी बहुत पीछे छोड़ दिया है। यह भी सही है कि भारतीय क्रिकेट ने पहले स्थान पाने के लिए लंबा इंतज़ार किया और एक बार बढ़त बनाने के बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1983 के विश्व कप की जीत ने भारत में ना सिर्फ़ क्रिकेट के लिए बड़े अवसर पैदा किए अपितु खेल पत्रकारिता के मायने भी बदल गये। क्रिकेट बढ़ती चली गई और बाकी खेलों के लिए अख़बारों के खेल पेज पर जगह पाना मुश्किल होता चला गया। इतना ही नहीं यह ग़लत धारणा भी बना ली गई कि जो क्रिकेट कवर करता है वह बड़ा पत्रकार और बड़े सम्मान का हकदार भी माना जाने लगा। सही मायने में आज की स्थिति में खेल पेज पर ओलंपिक खेलों को तब ही जगह मिल पाती है, जब किसी खिलाड़ी या खेल ने कोई बड़ा करिश्मा किया हो| ओलंपिक पदक विजेताओं और एशियाड और विश्व स्तर पर पदक जीतने जैसे अवसर अपवाद ज़रूर हैं|
कुल मिलाकर आज के हालात और भारतीय खेल पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखते हुए विश्व खेल पत्रकार दिवस महज खानपूरी बन कर रह गया है|
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार है, चिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को www.sajwansports.com पर पढ़ सकते हैं।)