हॉकी का ओलंम्पिक पदक देखे सालों बीत गए, आंखें तरस गईं
राजेंद्र सजवान
जब भी कोई भारतीय खिलाड़ी किसी भी खेल में ओलंम्पिक पदक जीत लाता है तो पूरा देश उस खिलाड़ी के सामने नतमष्तक हो जाता है। उसे हीरो और सुपर हीरो की तरह देखा जाता है। फिर चाहे मेजर ध्यान चंद और सरदार बलबीर सिंह की अगुवाई में जीते हॉकी स्वर्ण हों, कर्णममलेश्वरी का कांस्य पदक या अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण, सभी को देश वासियों ने सिर माथे बैठाया।
सुशील, बिजेंद्र, योगेश्वर, सिंधु,सायना,मैरीकॉम और अन्य के पदकों को भारतीय खेलप्रेमियों ने बढ़ चढ़ कर सम्मान दिया। लेकिन यह भी सच है कि आम भारतीय खेल प्रेमी जब कभी ओलंम्पिक पदक की चाह व्यक्त करता है तो उसकी जुबान पर पहला नाम हॉकी का होता है। वह इतना जरूर पूछता है, ‘भाई इस बार हॉकी का क्या हाल है? क्या पदक मिलने के चांस हैं?
ऐसा इसलिए है क्योंकि पिछली दो तीन पीढ़ियों ने हॉकी के गौरवशाली इतिहास को करीब से देखा परखा है। भारतवासियों ने करीब से देखा है कि कैसे हॉकी ने देश को दुनियां में सम्मान दिलाया । कैसे हमारे हॉकी सितारे घर बाहर जाने पहचाने गए। सात ओलंम्पिक स्वर्ण जीतने के बाद एक दौर वह भी आया जब हमारे चैंपियन घर घर में जाने पहचाने गए।
यह सिलसिला 1980 के मास्को ओलंम्पिक में मिली जीत तक चलता रहा। शायद उस टीम के सभी खिलाड़ियों को बराबर आदर सम्मान मिला। लेकिन टोक्यो ओलंम्पिक में भाग लेने गए पुरुष टीम के कितने खिलाड़ियों को आप हम और यहां तक कि हॉकी से करीब से जुड़े लोग जानते पहचानते हैं? शायद दो चार खिलाड़ी हैं जोकि चर्चा में रहते हैं।
लेकिन टोक्यो में यदि भारत स्वर्ण पदक जीत पाता है तो शायद देशभर में अपने तथाकथित राष्ट्रीय खेल के चर्चे फिर से आम होंगे। फिर से हॉकी ऊंचे कद के साथ गांव, गली और शहर शहर धूम मचाएगी। फिर से हमारे चैंपियनों को बड़ी पहचान मिलेगी।
लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? सच तो यह है कि आम देशवासी उम्मीद छोड़ चुका है। हर ओलंम्पिक में बड़े बड़े दावों के साथ जाते हैं और खाली हाथ लौट आते हैं। पहले अंपायरिंग का बहाना बनाया जाता था तो अब कोई बहाना खोज लिया जाता है।
इस बार कोरोना का बना बनाया बहाना है। लेकिन पूर्व खेल मंत्री किरण रिजिजू, आईओए और अंतर राष्ट्रीय हॉकी संघ के अध्यक्ष डॉक्टर नरेंद्र बत्रा विश्व रैंकिंग में चौथे नंबर की टीम को स्वर्ण पदक का मैटेरियल बता चुके हैं।
भारत तो बस एक अदद पदक चाहता है। रंग चाहे कोई भी हो, कमसे कम जीत की आदत फिर से शुरू हो जाए। ताकि फिर से हॉकी भारत के जन जन का खेल बन जाए।
यह सच है कि अन्य खेलों में हम चाहे कितने भी पदक क्यों ना जीतें, हॉकी का एक अदना सा ओलंम्पिक पदक बड़े मायने रखता है।
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)
वाह